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महावीर-वाणी
भाग : 1
है। आदमी एक शास्त्र है-परम शास्त्र है, द अल्टीमेट स्क्रिप्चर। इस बात को समझें तो महावीर का स्वाध्याय समझ में आएगा। _ मनुष्य परम शास्त्र है। क्योंकि जो भी जाना गया है, वह मनुष्य ने जाना। जो भी जाना जाएगा वह मनुष्य जानेगा। काश, मनुष्य स्वयं को ही जान ले, तो जो भी जाना गया है और जो भी जाना जा सकता है वह सब जान लिया जाता है। इसलिए महावीर ने कहा है-एक को जानने से सब जान लिया जाता है। स्वयं को जानने से सर्व जान लिया जाता है। इसके कई आयाम हैं। पहली तो बात यह है कि जानने योग्य जो भी है उसके हम दो हिस्से कर सकते हैं-एक तो आब्जेक्टिव, वस्तुगत; दूसरा सब्जेक्टिव, आत्मगत। जानने में दो घटनाएं घटती हैं-जाननेवाला होता है और जानीजाने वाली चीज होती है। विषय होता है जिसे हम जानते हैं, और जाननेवाला होता है जो जानता है। विज्ञान का संबंध विषय से है, आब्जेक्ट से है, वस्तु से है। जिसे हम जानते हैं उसे जानने से है। धर्म का संबंध उसे जानने से है जिससे हम जानते हैं; जो जानता है उसे जानने से है।
ज्ञाता को जानना धर्म है और ज्ञेय को जानना विज्ञान है। ज्ञेय को हम कितना ही जान लें तो ज्ञाता के संबंध में तो भी पता नहीं चलता। कितना ही हम जान लें चांद-तारे, सूरजों के संबंध में तो भी अपने संबंध में कुछ पता नहीं चलता। बल्कि एक बड़े मजे की बात है कि जितना हम वस्तुओं के संबंध में ज्यादा जान लेते हैं उतना ही हमें वह भूल जाता है, जो जानता है। क्योंकि जानकारी बहत इकट्ठी हो जाए तो ज्ञाता छिप जाता है। आप इतनी चीजों के संबंध में जानते हैं कि आपको खयाल ही नहीं रहता कि अभी जानने को कुछ शेष बच रहा है इसलिए विज्ञान बढ़ता जाता है रोज, जानता जाता है रोज। कितने प्रकार के मच्छर हैं, विज्ञान जानता है। प्रत्येक प्रकार के मच्छर की क्या खूबियां है, विज्ञान जानता है। कितने प्रकार की वनस्पतियां हैं, विज्ञान जानता है। प्रत्येक वनस्पति में क्या-क्या छिपा है, विज्ञान जानता है। कितने सूरज हैं, कितने तारे हैं, कितने चांद हैं, विज्ञान जानता है।
आइंस्टीन ने मरते वक्त कहा कि अगर मझे दबारा जीवन मिले तो मैं एक संत होना चाहंगा। क्यों? जो खाट के आसपास इकटे थे. उन्होंने पूछा- क्यों? तो आइंस्टीन ने कहा-जानने योग्य तो अब एक ही बात मालूम पड़ती है कि वह जो जान रहा था, वह कौन है? जिसने जान लिया कि चांद-तारे कितने हैं, लेकिन होगा क्या? दस हैं कि दस हजार हैं, कि दस करोड़ हैं कि दस अरब हैं, इससे होगा क्या। दस हैं, ऐसा जाननेवाला भी वहीं खड़ा रहता है, दस करोड़ हैं, ऐसा जाननेवाला भी वहीं खड़ा रहता है; दस अरब हैं, ऐसा जाननेवाला भी वहीं खड़ा रहता है। जानकारी से जाननेवाले में कोई भी परिवर्तन नहीं होता। लेकिन एक भ्रम जरूर पैदा होता है कि मैं जाननेवाला हूं।
महावीर ऐसे जाननेवाले को मिथ्या ज्ञानी कहते हैं। कहते हैं-जाननेवाला जरूर है, लेकिन मिथ्या जाननेवाला है। ऐसी चीजें जाननेवाला है जिसे बिना जाने भी चल सकता था, और ऐसी चीज को छोड़ देनेवाला है जिसके बिना जाने नहीं चल सकता। जो कीमती है, वह छोड़ देते हैं हम और जो गैरकीमती है वह जान लेते हैं हम। आखिर में जानना इकट्ठा हो जाता है और जाननेवाला खो जाता है। मरते वक्त हम बहुत कुछ जानते हैं, सिर्फ उसे ही नहीं जानते जो मर रहा है। अदभुत है यह बात कि आदमी अपने को नहीं जानता! इसलिए महावीर ने स्वाध्याय को कीमती अंतर-तपों में गिना है
स्वाध्याय चौथा अंतर-तप है। इसके बाद दो ही तप बच जाएंगे और उन दो तपों के बाद एक्सप्लोजन, विस्फोट घटित होता है। तो स्वाध्याय बहुत निकट की सीढ़ी है विस्फोट के। जहां क्रांति घटित होती है, जहां जीवन नया हो जाता है, जहां आपका पुनर्जन्म होता है, नया आदमी आपके भीतर पैदा होता है, पुराना समाप्त होता है। स्वाध्याय बहुत करीब आ गया। अब दो ही सीढ़ी बचती हैं और। इसलिए शास्त्र अध्ययन स्वाध्याय का अर्थ नहीं हो सकता। शास्त्र-अध्ययन कितना कर रहे हैं लोग, लेकिन कहीं कोई क्रांति घटित नहीं मालूम होती। कहीं कोई विस्फोट नहीं होता है। सच तो यह है कि जितना आदमी शास्त्र को जानता है, उतना ही स्वयं को जानने की
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