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________________ वैयावृत्य और स्वाध्याय नहीं, महावीर कहते हैं— दूसरे के दुख का शोषण नहीं, क्योंकि शोषण कैसे सेवा हो सकता है? दूसरा दुखी है तो उसके दुख में मेरा हाथ हो सकता है। उस हाथ को मुझे खींच लेना है, उसी का नाम सेवा है। वह मेरे कारण दुखी न हो, इतना हाथ मुझे खींच लेना है। इसके दो अर्थ हुए- मेरे कारण कोई दुखी न हो, ऐसा मैं जियूं। और अगर मुझे कोई दुखी मिल जाता है तो मेरे कारण अतीत में वह दुख पैदा न हुआ हो, ऐसा मैं व्यवहार करूं कि अगर मेरा कोई भी हाथ हो तो हट जाए। इसमें कोई पैशन नहीं हो सकता; इसमें कोई वरा और तीव्रता नहीं हो सकती, इसमें कोई रस नहीं हो सकता करने का क्योंकि यह सिर्फ न करना है; यह सिर्फ मिटाना और पोंछना है । इसलिए महावीर की सेवा समझी नहीं जा सकी क्योंकि हम सब पैशोनेट हैं। अगर धर्म भी हमको पागलपन न बन जाए तो हम धर्म भी नहीं कर सकते। अगर मोक्ष भी हमारी जिद्द न बन जाए तो हम मोक्ष भी नहीं जा सकते। अगर पुण्य भी किसी अर्थ में शोषण न हो तो हम पुण्य भी नहीं कर सकते, क्योंकि शोषण हमारी आदत है; शोषण हमारे जीवन का ढंग है। व्यवस्था है हमारी। और वासना हमारा व्यवहार है। जिस चीज में हम वासना जोड़ दें वही हम कर सकते हैं, अन्यथा हम नहीं कर सकते। तो अगर सेवा धन वासना हो जाए तो हम सेवा भी कर सकते हैं। इसलिए सेवा के लिए आपको उन्मुख करनेवाले लोग कहते हैं कि सेवा से क्या-क्या मिलेगा, दान से क्या-क्या मिलेगा। सवाल यह नहीं है कि दान क्या है, सेवा क्या है। सवाल क्या है कि आपको क्या-क्या मिलेगा, आप क्या - क्या पा सकोगे। वे आपको स्वर्ग की पूरी झलक दिखाते हैं। आपसे कुछ भी करवाना हो तो आपकी वासना को प्रज्जवलित करना पड़ता है। आपकी वासना प्रज्जवलित न हो तो आप कुछ भी नहीं करने को राजी हैं। जीसस से मरने के पहले जीसस के एक शिष्य ने पूछा कि घड़ी आ गयी पास, सुनते हैं हम कि आप नहीं बच सकेंगे। एक बात तो बता दें। यह तो पक्का है कि आप ईश्वर के हाथ के पास सिंहासन पर बैठेंगे। हम लोगों की जगह क्या होंगी? हम कहां बैठेंगे? वह जो ईश्वर का राज्य होगा, सिंहासन होगा, आप तो पड़ोस में बैठेंगे, यह पक्का है। हम लोगों की क्रम संख्या क्या होगी? कौन कहां बैठेगा, किस नम्बर से बैठेगा? जब भी आदमी कोई त्याग करता है तो पहले पूछ लेता है कि फल क्या होगा? इतना छोड़ता हूं, मिलेगा कितना? और ध्यान रहे, जब छोड़ने में मिलने का खयाल हो, तो वह छोड़ना है? वह बार्गेनिंग है, वह सौदा है। इससे क्या फर्क पड़ता है आपको क्या मिलेगा - मोक्ष मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, धन मिलेगा, प्रेम मिलेगा, आदर मिलेगा, इससे कोई सवाल नहीं पड़ता — मिलेगा कुछ । महावीर कहते हैं— सेवा से मिलेगा कुछ भी नहीं, कुछ कटेगा। कुछ मिलेगा नहीं, कुछ कटेगा। कुछ छूटेगा, कुछ हटेगा। सेवा अगर हम महावीर की तरह समझें तो वह मेडीसिनल है, दवाई की तरह है। दवाई से कुछ मिलेगा नहीं, सिर्फ बीमारी कटेगी । ईसाइयत की सेवा टानिक की तरह है, उसमें कुछ मिलेगा। उसका भविष्य है। महावीर की सेवा मेडीसिन की तरह है, उससे बीमारी भर कटेगी, मिलेगा कुछ नहीं । यह भेद इतना गहरा है, और इस भेद के कारण ही जैन परंपरा सेवा को जम्ना न पायी। नहीं तो जीसस से पांच सौ वर्ष पहले महावीर ने सेवा की बात की थी और उसे अंतर-तप कहा था जो जैन परंपरा उसे जगा न पायी, जरा भी न जगा पायी। क्योंकि कोई पैशन न था, उसमें कोई त्वरा नहीं पैदा होती थी। फिर कुछ कटेगा, कुछ मिटेगा, कुछ छूटेगा, कुछ कमी ही हो जाएगी उल्टी । पापी के भी पाप का ढेर थोड़ा कम हो तो उसको भी लगता है कुछ कम हो रहा है। समथिंग इज मिसिंग । मेरे पास जो था उसमें कमी हो गयी। बीमार भी लंबे दिनों की बीमारी के बाद जब स्वस्थ होता है तो लगता है समथिंग इज मिसिंग, कुछ खो रहा है। इसलिए जो लंबे दिनों रह जाए और बीमारी में रस ले ले, वह कितना ही कहे, स्वस्थ होना चाहता है, भीतर कहीं कोई हिस्सा कहता है, मत होओ। मनोवैज्ञानिक कहते हैं— सत्तर प्रतिशत बीमार इसलिए बीमार बने रहते हैं कि बीमारी में उन्हें रस पैदा हो गया है, वे बीमारी को Jain Education International 297 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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