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महावीर वाणी
भाग : 1
- देखो, मैं निरअहंकारी हूं। अहंकार है ही कहां मुझमें। अहंकार यह भी कह सकता है कि अहंकार मुझमें नहीं है। तब वह विनय नहीं रह जाती, वह अहंकार का ही एक रूप है - प्रच्छन्न, छिपा हुआ, गुप्त, और पहले प्रगट रूप से ज्यादा खतरनाक है। इसलिए निर अहंकार नहीं कहा है जानकर; क्योंकि कोई भी अंतर-तप अगर निषेधात्मक रूप से पकड़ा जाए तो सूक्ष्म हो जाएगी वह बीमारी जिसको आप हटाने चले थे, मिटाना कठिन होगा। हां, विनय आ जाए तो आप निरअहंकारी हो जाएंगे। लेकिन निरअहंकारी होने की कोशिश अहंकार को नष्ट नहीं कर पाती। अहंकार इतने विनम्र रूप ले सकता है जिसका हिसाब लगाना कठिन है । अहंकार कह सकता है – मैं तो कुछ भी नहीं, आपके पैरों की धूल हूं। और तब भी इस घोषणा में बच सकता है। इसलिए बहुत बारीक और बहुत सूक्ष्म भेद है ।
विनय है पाजिटिव । महावीर विधायक जोर दे रहे हैं कि आपके भीतर वह अवस्था जन्मे जहां दूसरा दोषी नहीं रह जाता। और जिस क्षण मुझे अपने दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं, उस क्षण विनय बहुत-बहुत रूपों में बरसती है। एक तो जो व्यक्ति अपने दोष नहीं देखता वह दूसरे के दोष बहुत कठोरता से देखता है। जिस व्यक्ति को अपने दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं वह दूसरे के दोषों के प्रति बहुत सदय हो जाता है; क्योंकि वह जानता है, मेरे भीतर भी यही है।
सच तो यह है कि जिस आदमी ने चोरी न की हो उस आदमी को चोरी के संबंध में निर्णय का अधिकार नहीं होना चाहिए। क्योंकि वह समझ ही नहीं पाएगा कि चोरी मनुष्य कैसी स्थितियों में कर लेता है। लेकिन हम चोर को कभी चोर का निर्णय करने को न बैठाएंगे। हम उसको बिठाएंगे जिसने कभी चोरी नहीं की है। उससे जो भी होगा वह अन्याय होगा । अन्याय इसलिए होगा कि वह अति कठोर होगा । वह जो सदयता आनी चाहिए - अपने भीतर की कमजोरी को जानकर दूसरे की कमजोरी भी स्वाभाविक है - ऐसा जो सहृदय भाव आना चाहिए वह उसके भीतर नहीं होगा । इसलिए जानकर आप हैरान होंगे कि तथाकथित जिन्हें हम पापी कहते हैं वे ज्यादा सहृदय होते हैं । और जिन्हें हम महात्मा कहते हैं, वे इतने सहृदय नहीं होते। महात्माओं में ऐसी दुष्टता का और ऐसी कठोरता का छिपा हुआ जहर मिलेगा, जैसा कि पापियों में खोजना कठिन है।
यह बहुत उल्टा दिखाई पड़ता है, लेकिन इसके पीछे कारण है। यह उल्टा नहीं है। पापी दूसरे पापियों के प्रति सदय हो जाता है क्योंकि वह जानता है - मैं ही कमजोर हूं तो मैं किसकी कमजोरी की निंदा करने जाऊं ! इसलिए किसी पापी ने दूसरे पापी के लिए नरक का आयोजन नहीं किया । पुण्यात्मा करते हैं। उनका मन नहीं मानता कि उनको छोड़ा जा सके। और इस बात की पूरी सम्भावना है कि उनके पुण्य करने में रस केवल इतना ही हो कि वे पापियों को नीचा दिखा सकते हैं। अहंकार ऐसे रस लेता है।
तो एक तो जैसे ही तीर अपनी तरफ मुड़ जाते हैं चेतना के, और अपनी भूलें, सहज भूलें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं, वैसे ही दूसरे भूल के प्रति एक अत्यंत सदय भाव आ जाता है । तब हम जानते हैं कि दूसरे को दोषी कहना व्यर्थ है । इसलिए नहीं कि वह दोषी न होगा या होगा, इसलिए कि दोष इतने स्वाभाविक हैं। मुझमें भी हैं। और जब स्वयं में दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं तो दूसरों से अपने को श्रेष्ठ मानने का कोई कारण नहीं रह जाता।
लेकिन जैन शास्त्र जो परिभाषा करते हैं विनय की वह बड़ी और है। वे कहते हैं— जो अपने से श्रेष्ठ हैं, उनका आदर विनय है। गुरुजनों का आदर, माता-पिता का आदर श्रेष्ठ जनों का आदर, साधुओं का आदर, महाजनों का आदर, लोकमान्य पुरुषों का आदर—इनका आदर विनय है । यह बिलकुल ही गलत है, यह आमूल गलत है। यह जड़ से गलत है। यह बात ठीक नहीं है। यह इसलिए ठीक नहीं है कि जो व्यक्ति दूसरे को श्रेष्ठ देखेगा वह किसी को अपने से निकृष्ट देखता ही रहेगा। यह असंभव है कि आपको कोई व्यक्ति श्रेष्ठ मालूम पड़े और कोई व्यक्ति ऐसा न मालूम पड़े जो आपसे निकृष्ट है क्योंकि तराजू में एक पलड़ा नहीं होता है।
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