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महावीर-वाणी
भाग : 1
का अर्थ है कि स्वीकार कर लो दुख को, इतना स्वीकार कर लो कि तुम्हें क्लेश का भी बोध मिट जाए। क्लेश का बोध उसी दिन मिट जाएगा जिस दिन पूर्ण स्वीकृति होगी। इसलिए महावीर सब दुखों के बीच आनंद से भरे घूमते रहते हैं। वे जब वर्षा में खड़े हैं, या धूप में पड़े हैं, या नग्न हैं, या बाल उखाड़ रहे हैं, या भोजन नहीं कर रहे हैं तो किसी दुख में नहीं हैं। उन्हें दुख का अब पता ही नहीं है। काया-क्लेश की स्वीकृति इतनी गहन हो गई है कि अब दुख का कोई पता भी नहीं चलता। अब वह कैसे कहें कि यह दुख है। __अगर मैं अपेक्षा करता हूं कि जब रास्ते से मैं गुजरूं तो आप मुझे नमस्कार करें। अगर न करें तो दुख होगा। अगर मैं अपेक्षा ही नहीं करता तो न करें तो कैसे दुख होगा! अगर आप मुझे गाली देते हैं और मुझे दुख होता है तो उसका मतलब ही यह है कि मैंने अपेक्षा की थी कि आप गाली नहीं देंगे। नहीं देते तो मुझे सुख होता है, देते हैं तो मुझे दुख होता है। लेकिन अगर मेरी कोई अपेक्षा नहीं थी, अगर मेरा सिर्फ स्वीकार था कि आप गाली देंगे तो स्वीकार करूंगा। तब मैं जानूंगा कि यही नियति है। इस क्षण गाली ही पैदा हो सकती थी, वह हो गयी है। आपसे गाली ही मिल सकती थी, वह मिल गयी है। इसमें कहीं कोई विपरीत दूसरी आकांक्षा नहीं हो, तो फिर कोई दुख नहीं रह जाता - एक तथ्य हो जाती है, एक फेक्टीसिटी। फिर इसके पीछे हमारी कोई कामना नहीं है।
काया-क्लेश की साधना शुरू होती है, दुख के स्वीकार से—पूर्ण होती है दुख के विसर्जन से। विसर्जित नहीं हो जाता दुख, ध्यान रहे, जब तक जीवन है, दुख तो रहेगा। जीवन दुख है। लेकिन जिस दिन स्वीकार पूरा हो जाता है, उस दिन आपके लिए दुख नहीं रह जाता। महावीर अब भी रास्ते पर चलेंगे तो पैर थकेंगे। कोई पत्थर मारेगा तो सिर फूटेगा। कोई कान में खीलें ठोंक देगा तो शरीर दुख पाएगा। लेकिन महावीर अब दुखी नहीं होंगे। यह स्वीकार ही कर लिया कि ऐसा है। स्वीकार के साथ इतना बड़ा रूपांतरण होता है, इतना बड़ा ट्रांसफार्मेशन, जिसका हमें पता भी नहीं।
युद्ध के मैदान पर सैनिक जाता है तो जब तक नहीं जाता, तब तक भयभीत रहता है। बहुत घबराया रहता है। बचाव की कोशिश में लगा रहता है कि किसी तरह बच जाऊं। लेकिन युद्ध के मैदान पर पहुंचता है। एक-दो दिन उसकी नींद खोई रहती है, सो नहीं पाता है, चौंक-चौंक उठता है। बम गिर रहे हैं, गोलियां चल रही हैं। पर दो-चार दिन के बाद आप दंग होंगे कि वही सैनिक, बम गिर रहे हैं, गोलियां चल रही हैं, सो रहा है। वही सैनिक, लाशें पड़ी हैं, भोजन कर रहा है। वही सैनिक, पास से गोलियां सरसराती निकल जाती हैं, ताश खेल रहा है। क्या हो गया इसको? एक बार युद्ध की स्थिति स्वीकत हो गई, फेक्ट हो गया कि ठीक है, अब युद्ध है। बात खत्म हो गई। ___ लंदन पर बमबारी दूसरे महायुद्ध में चलती थी। चिन्तित थे लोग कि क्या होगा? लेकिन दो-चार दिन के बाद बमबारी चलती रही, स्त्रियां बाजार में सामान खरीदने निकलने लगी, बच्चे स्कूल पढ़ने जाने लगे। स्वीकृत हो गया। युद्ध एक तथ्य हो गया। ऐसा नहीं है कि युद्ध के मैदान पर वह जो लाश पास में पड़ी होती है वह लाश नहीं होती। और ऐसा भी नहीं है कि वह आदमी कठोर हो गया, अन्धा हो गया, बहरा हो गया। नहीं, वह आदमी वही है। लेकिन तथ्य की स्वीकृति सारी स्थिति को बदल देती है।
वीकार जब तक करेंगे, तब तक तथ्य आपको सताएगा। जिस दिन स्वीकार कर लेंगे, बात समाप्त हो गई। अगर मैंने ऐसा जान ही लिया कि शरीर के साथ मौत अनिवार्य है तो मौत का दुख नष्ट हो गया। मौत आएगी, मौत नष्ट नहीं हो गई—मौत आएगी। लेकिन अब मुझे नहीं छू पाएगी।
काया-क्लेश की साधना दुख की स्वीकृति से दुख की मुक्ति का उपाय है। लेकिन भूलकर भी काया को कष्ट देने की कोशिश
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