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ऊणोदरी एवं वृत्ति-संक्षेप
ठहरा देना और बुद्धि को सजग रखकर देखना कि उस वृत्ति के अनुभव क्या हैं। ___ बहुत आदमी के संबंध में जो बड़े से बड़ा आश्चर्य है वह यह है कि जिस चीज को आप आज कहते हैं कि कल मुझे मिल जाए तो सुख मिलेगा, कल जब वह चीज मिलती है तो आप कभी तौल नहीं करते कि कल मैंने कितना सुख सोचा था, वह मिला या नहीं मिला! बड़ा आश्चर्य है। यह भी बड़ा आश्चर्य है कि उससे दुख मिलता है, फिर भी दूसरे दिन आप फिर उसी की चाह करने लगते हैं और कभी नहीं सोचते कि कल पाकर इसे दुख पाया था, अब मैं फिर दुख की तलाश में जाता हूं। हम कभी तौलते ही नहीं, बुद्धि का वही काम है, वही हम नहीं लेते उससे। वही काम है कि जिस चीज में सोचा था कि सुख मिलेगा, उसमें मिला? जिस चीज में सोचा था सुख मिलेगा उसमें दुख मिला, यह अनुभव में आता है और इस अनुभव को हम याद नहीं रखते और जिसमें दुख मिला उसको फिर दुबारा चाहने लगते हैं। __ऐसे जिंदगी सिर्फ एक कोल्हू के बैल जैसी हो जाती है। बस एक ही रास्ते पर घूमते रहते हैं। कोई गति नहीं, कहीं कोई पहुंचना नहीं होता। घूमते-घूमते मर जाते हैं। जहां पैदा होते हैं, उसी जमीन पर खड़े-खड़े मर जाते हैं। कहीं एक इंच आगे नहीं बढ़ पाते। बढ़ भी नहीं पाएंगे। क्योंकि बढ़ने की जो सम्भावना थी वह आपकी बुद्धिमत्ता से थी, आपकी विसडम से थी, आपकी प्रज्ञा में थी। वह तो प्रज्ञा कभी विकसित नहीं होती।
तो महावीर वृत्ति-संक्षेप पर जोर देते हैं ताकि प्रत्येक वृत्ति अपनी-अपनी निखार तीव्रता में, अपनी प्योरिटी में अनुभव में आ जाए और अनुभव कह जाए दुख है, कि दुख है वहां, सुख नहीं। और बुद्धि इस अनुभव को संग्रहीत करे, बुद्धि इस अनुभव को जिए और पिए और इस बुद्धि के रोएं-रोएं में यह समा जाए तो आपके भीतर वृत्तियों से ऊपर आपकी प्रज्ञा, आपकी बुद्धिमत्ता उठने लगेगी।
और जैसे-जैसे बद्धिमत्ता ऊपर उठती है, वैसे-वैसे वत्तियां सिकडती जाती हैं। इधर वृत्तियां सिकुड़ती हैं, इधर बुद्धिमत्ता ऊपर उठती है। और बाहर परिग्रह कम होता चला जाता है। जैसे बुद्धिमत्ता ऊपर उठती है वैसे संसार बाहर कम होता चला जाता है। जिस दिन आपकी समग्र शक्ति वृत्तियों से मुक्त होकर बुद्धि को मिल जाती है, उसी दिन आप मुक्त हो जाते हैं। जिस दिन आपकी सारी शक्ति वृत्तियों से मुक्त होकर प्रज्ञा के साथ खड़ी हो जाती है, उसी दिन आप मुक्त हो जाते हैं।
जिस दिन कामवासना की शक्ति भी बुद्धि को मिल जाती है; जिस दिन लोभ की शक्ति भी बुद्धि को मिल जाती है; जिस दिन क्रोध की शक्ति भी बुद्धि को मिल जाती है; जिस दिन मोह की शक्ति भी बुद्धि को मिल जाती है; जिस दिन समस्त शक्तियां बुद्धि की तरफ प्रवाहित होने लगती हैं; जैसे नदियां सागर की तरफ जा रही हों, उस दिन बुद्धि का महासागर आपके भीतर फलित होता है। उस महासागर का आनंद, उस महासागर की प्रतीति और अनुभूति दुख की नहीं है, परेशानी की नहीं है, वह परम आनंद की है। वह प्रफुल्लता की है। वह किसी फूल के खिल जाने जैसी है। वह किसी दीये के जल जाने जैसी है। वह कहीं मृतक में जैसे जीवन आ जाए, ऐसी है।
आज इतना ही। कल आगे के नियम पर बात करेंगे। लेकिन उठे न। जो कीर्तन के लिए आना चाहते हैं वे ऊपर आ जाएं। पांच मिनट कीर्तन करें, फिर जाएं।
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