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________________ ऊणोदरी एवं वृत्ति-संक्षेप हो जाती है। जैसे हम पानी को गर्म करते हैं। पानी सौ डिग्री पर जाकर भाप बनता है। लेकिन अगर आप निन्यानबे डिग्री पर रुक जाएं तो पानी वापस पानी ही ठण्डा हो जाएगा। लेकिन अगर आप सौ डिग्री के बाद रुकना चाहें तो फिर पानी वापस नहीं लौटेगा, वह भाप बन चुका होगा। एक डिग्री का फासला फिर लौटने नहीं देगा, फिर नो-रिटर्न प्वाइंट आ जाता है। अगर आप सौ डिग्री के पहले निन्यानबे डिग्री पर रुक गए तो पानी गर्म होकर फिर ठंडा होकर पानी रह जाएगा। भाप नहीं बनेगा। आप रुक सकते हैं, अभी रुकने का उपाय । सौ डिग्री के बाद अगर आप रुकते हैं तो पानी भाप बन चुका होगा। फिर पानी आपको मिलेगा नहीं । आपके हाथ के बाहर बात हो गयी । जब आप क्रोध के विचार से भरते हैं, तब भी एक डिग्री आती है, उसके पहले आप रुक सकते थे। उस डिग्री के बाद आप नहीं रुक सकेंगे क्योंकि आपके भीतर वालंटरी मेकेनिज्म जब अपनी वृत्ति को नानवालंटरी मेकेनिज्म को सौंप देता है, फिर आपके रुकने के बाहर बात हो जाती है। इसे ठीक से समझ लें। जब ऐच्छिक यंत्र... सबसे पहले आपके भीतर कोई भी चीज इच्छा की भांति 'शुरू होती है। एक सीमा है, अगर आप इच्छा को बढ़ाए ही चले गए तो एक सीमा पर इच्छा का यंत्र आपके भीतर जो आपकी इच्छा के बाहर चलनेवाला यंत्र है, उसको सौंप देता है। उसके हाथ में जाने के बाद आप नहीं रोक सकते। अगर आप क्रोध एक सीमा के पहले रोक लिए तो रोक लिए, एक सीमा के बाद क्रोध नहीं रोका जा सकेगा, वह प्रगट होकर रहेगा। अगर आपने कामवासना को एक सीमा पर रोक लिया तो ठीक, अन्यथा एक सीमा के बाद कामवासना आपके ऐच्छिक यंत्र के बाहर हो जाएगी। फिर आप उसको नहीं रोक सकते। फिर आप विक्षिप्त की तरह उसको पूरा करके ही रहेंगे, फिर उसे रोकना मुश्किल है। ऊणोदरी का अर्थ है - ऐच्छिक यंत्र से अनैच्छिक यंत्र के हाथ में जब जाती है कोई बात तो उसी सीमा पर रुक जाना। इसका मतलब इतना ही नहीं है केवल कि आप तीन रोटी रोज खाते हैं तो आज ढाई रोटी खा लेंगे तो ऊणोदरी हो जाएगी। नहीं, ऊणोदरी का अर्थ है इच्छा के भीतर रुक जाना, आपकी सामर्थ्य के भीतर रुक जाना । अपनी सामर्थ्य के बाहर किसी बात को न जाने देना, क्योंकि आपकी सामर्थ्य के बाहर जाते ही आप गुलाम हो जाते हैं। फिर आप मालिक नहीं रह जाते। लेकिन मन पूरी कोशिश करेगा कि क्लाइमेक्स तक ले चलो, किसी भी चीज को उसके चरम तक ले चलो। क्योंकि मन को तब तक तृप्ति नहीं मालूम पड़ती जब तक कोई चीज चरम पर न पहुंच जाये। और मजा यह है कि चरम पर पहुंच जाने के बाद सिवाय विषाद, फ्रस्ट्रेशन के कुछ हाथ नहीं लगता । तृप्ति हाथ नहीं लगती। अगर मन ने भोजन के संबंध में सोचना शुरू किया तो वह उस सीमा तक खायेगा जहां तक खा सकता है। और फिर दुखी, परेशान और पीड़ित होगा । मुल्ला नसरुद्दीन अपने बुढ़ापे में अपने गांव में मजिस्ट्रेट हो गया। पहला जो मुकदमा उसके हाथ में आया वह एक आदमी का था जो करीब-करीब नम्र, सिर्फ अंडरवियर पहने अदालत में आकर खड़ा हुआ। और उसने कहा कि मैं लूट लिया गया हूं और तुम्हारे गांव के पास ही लूटा गया हूं। मुल्ला ने कहा- मेरे गांव के पास ही लूटे गए हो? क्या-क्या तुम्हारा लूट लिया गया है? उसने सब फेहरिश्त बतायी। मुल्ला ने कहा - लेकिन जहां तक मैं देख सकता हूं, तुम अंडरवियर पहने हुए हो । उसने कहा – हां, मैं अंडरवियर पहने हुए हूं। मुल्ला ने कहा- मेरी अदालत तुम्हारा मुकदमा लेने से इनकार करती है। वी नैवर डू ऐनीथिंग हाफ-हार्टेडली एण्ड पार्शियली । हमारे गांव में कोई आदमी आधा काम नहीं करता, न आधे हृदय से काम करता है। भी निकाल लिया गया होता। तुम किसी और गांव के आदमियों के द्वारा लूटे गए हो। Jain Education International 195 अगर हमारे गांव में लूटे गये थे तो अंडरवियर तुम्हारा मुकदमा लेने से मैं इनकार करता हूं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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