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महावीर-वाणी
भाग : 1
की मूर्छा बढ़ती है। अहिंसा अकेला कारण होता तो महावीर कह सकते थे कि मरे हुए जानवर का मांस लेने में कोई हर्जा नहीं है, बुद्ध ने कहा था। अगर अहिंसा ही एक मात्र कारण है, तो मारकर मत... क्योंकि मारने में हिंसा है, मांस खाने में तो कोई हिंसा नहीं है! अब एक जानवर मर गया है, हम तो मार नहीं रहे, मर गया है, अब तो मांस खा रहे हैं, तो मांस खाने में कौन-सी हिंसा है? मरे हुए के मांस खाने में कोई भी हिंसा नहीं है। इसीलिए बुद्ध ने आज्ञा दे दी, मरे हुए जानवर का मांस खाया जा सकता है। हिंसा तो मारने में थी। लेकिन महावीर ने मरे हुए जानवर का मांस खाने की भी आज्ञा नहीं दी। क्योंकि महावीर का प्रयोजन मात्र अहिंसा नहीं है। महावीर का उससे भी गहरा प्रयोजन यह है कि मांस पचने में ज्यादा शक्ति मांगता है, शरीर को ज्यादा भारी कर जाता है, पेट को ज्यादा महत्वपूर्ण कर जाता है और मस्तिष्क की ऊर्जा क्षीण होती है. तंद्रा गहरी होती है।
इसलिए महावीर ने ऐसे हल्के भोजन की सलाह दी है जो कम-से-कम शक्ति मांगे और मस्तिष्क की ऊर्जा कम न हो। यह मस्तिष्क में ऊर्जा का प्रवाह बना रहे तो ही आप जाग्रत रह सकते हैं, अभी जिस स्थिति में आप हैं। इसलिए इसको बाह्य-तप कहा है, इसको
आंतरिक तप नहीं कहा। जो आदमी आंतरिक तप को उपलब्ध हो जाएगा वह तो नींद में भी जागा रहता है, उसका तो कोई सवाल नहीं है। जो आदमी आंतरिक तप को उपलब्ध हो जाता है उसे तो आप शराब भी पिला दें तो भी होश में होता है। उसे तो माफिया दे दें तो भी शरीर ही सुस्त हो जाता है, शरीर ही ढीला पड़ जाता है। भीतर उसकी ज्योति जागती रहती है। उसकी प्रज्ञा पर कोई भेद नहीं पड़ता। ___ लेकिन हमारी हालत ऐसी नहीं है। हमें तो जरा-सा, भोजन का एक टुकड़ा भी हमारी कांशसनेस को बदलता है, हमारी चेतना
को बदलता है—जरा-सा एक टुकड़ा हमारी चेतना को डांवाडोल कर देता है। हम भीतर और हो जाते हैं। तो महावीर ने कहा है-इसे पहला तप कहा है, बाह्य-तप में। चेतना को बढ़ाना है तो जब भोजन शरीर में नहीं है, आसानी से बढ़ाव हो सकेगा। छोटी-छोटी बातों के परिणाम होते हैं-छोटी-छोटी बातों के परिणाम होते हैं, क्योंकि हम जहां जीते हैं वहां हम छोटी-छोटी चीजों से ही भरे और बंधे हुए हैं। जिस दिन भी हम आदमी को भोजन की जरूरत से मुक्त कर सकेंगे उसी दिन आदमी परिपूर्ण रूप से चेतना से भर जाएगा। हम पृथ्वी से नहीं बंधे हैं, पेट से बंधे हैं। हमारा गहरा बंधन पदार्थ से नहीं है, ठीक कहें तो भोजन से है। जिस मात्रा में आप भोजन के लिए आतुर हैं, उसी मात्रा में आप मूर्च्छित होंगे, स्लीपी होंगे, और आपके भीतर जागरण को लाने में अड़चन पड़ेगी, कठिनाई पड़ेगी।
यह सवाल इतना ही नहीं है कि भोजन छोड़ दिया। यह तो सिर्फ बाह्य रूप है। भीतर चेतना बढ़े। तो चेतना कैसे बढ़े, उसको हम आंतरिक तप में समझ पाएंगे कि चेतना कैसे बढ़े। लेकिन भोजन छोड़कर कभी-कभी चेतना बढ़ाने का प्रयोग कीमती है। लेकिन हम जब भोजन छोड़ते हैं तो चेतना वगैरह नहीं बढ़ती, केवल भोजन का चिंतन बढ़ता है। उसका कारण है कि हम भोजन भी छोड़ते हैं तो हमें यह पता नहीं कि हम किसलिए छोड़ते हैं। हमें यह बताया जा रहा है कि सिर्फ भोजन छोड़ देना ही पुण्य है। वह बिलकुल पागलपन है। अकेला भोजन छोड़ देना पुण्य नहीं है। भोजन छोड़ देने के पीछे जो रहस्य है उसमें पुण्य छिपा है। अगर आपने सोचा है कि सिर्फ भोजन छोड़ देना पुण्य है तो भोजन छोड़कर आप भोजन का चिंतन करते रहेंगे, क्योंकि भीतर का जो असली तत्व है उसका तो आपको कोई पता नहीं है। आप बैठकर भोजन का चिंतन करेंगे। और ध्यान रहे, भोजन के चिंतन से भोजन ही बेहतर है, क्योंकि भोजन का चिंतन बहुत खतरनाक है। उसका मतलब यह हुआ कि पेट का काम आप मस्तिष्क से ले रहे हैं जो कि बहुत कंफ्यूजन पैदा करेगा। आपके पूरे व्यक्तित्व को रुग्ण कर जाएगा। इस पर हम पीछे बात करेंगे, क्योंकि दूसरे सूत्र पर, महावीर इस पर बहुत जोर देंगे।
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