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महावीर-वाणी
भाग : 1
महावीर ने तप के दो रूप-आन्तरिक तप, अन्तर-तप और बाह्य-तप कहे हैं। अन्तर-तप में उन्होंने छह हिस्से किए हैं, छह सूत्र; और बाह्य-तप में भी छह हिस्से किए हैं। कल हम बाह्य-तप से बात शुरू करेंगे, फिर अन्तर-तप पर। और अगर तप की प्रक्रिया खयाल में आ जाए, संकल्प में चली जाए तो जीवन उस यात्रा पर निकल जाता है जिस यात्रा पर निकले बिना अमृत का कोई अनुभव नहीं है। हम जहां हैं वहां बार-बार मृत्यु का ही अनुभव होगा। क्योंकि जो हम नहीं हैं उससे हमने अपने को जोड़ रखा है। हम बार-बार टूटेंगे, मिटेंगे, नष्ट होंगे और जितना टूटेंगे, जितना मिटेंगे उतना ही उसी से अपने को बार-बार जोड़ते चले जाएंगे जो हम नहीं हैं। जो मैं नहीं हूं, उससे अपने को जोड़ना, मृत्यु के द्वार खोलना है, जो मैं हूं उससे अपने को जोड़ना, अमृत के द्वार खोलना है।
तप अमृत के द्वार की सीढ़ी है। बारह सीढ़ियां हैं। कल से हम उनकी बात शुरू करेंगे।
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आज के लिए इतना ही। बैठेंगे पांच मिनट, ध्वनि करेंगे संन्यासी, उसमें सम्मिलित हों...।
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