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________________ महावीर वाणी भाग : 1 जाए। लेकिन वह कोई तीस साल से शराब पी रहा है। इतना लम्बा अभ्यास है। चिकित्सक डरते हैं कि अगर तोड़ा जाए तो भी मौत हो सकती है। तो पावलफ के पास लाया गया। पावलफ ने अपने एक निष्णात शिष्य को सौंपा और कहा कि इस व्यक्ति को शराब पिलाओ और जब यह शराब की प्याली हाथ में ले, तभी इसे बिजली का शाक दो। ऐसा निरंतर करने से शराब पीना और बिजली का धक्का और पीड़ा संयुक्त हो जाएगी। शराब पीड़ा - युक्त हो जाएगी, कंडीशनिंग हो जाएगी। पीड़ा को कोई भी नहीं चाहता है। पीड़ा को छोड़ना शराब को छोड़ना बन जाएगा। और एक बार यह भाव मन में बैठ जाए गहरे कि शराब पीड़ा देती है, दुख लाती है, तो शराब को छोड़ना कठिन नहीं होगा । एक महीना प्रयोग जारी रखा गया। एक महीना पावलफ की प्रयोगशाला में वह आदमी रुका था। वह दिन भर शराब पीता था, जब भी वह शराब का प्याला हाथ में लेता, तभी उसकी कुर्सी उसको शाक देती । वह सामने बैठा हुआ मनोवैज्ञानिक बटन दबाता रहता । कभी उसका हाथ छलक जाता, कभी हाथ से प्याली गिर जाती । महीने भर बाद पावलफ ने अपने युवक शिष्य को बुलाकर पूछा, 'कुछ हुआ?' युवक शिष्य ने कहा, 'हुआ बहुत कुछ।' पावलफ खुश हुआ। उसने कहा, 'मैंने कहा ही था कि निश्चित ही कंडीशनिंग से सब कुछ 'जाता है।' पर उसके शिष्य ने कहा, 'ज्यादा खुश न हों, क्योंकि करीब-करीब उल्टा हुआ । ' पावलफ ने कहा, 'उल्टा ! क्या अर्थ है तुम्हारा ?' युवक ने कहा, 'ऐसा हो गया है, वह इतना कंडीशंड हो गया है कि अब शराब पीता है तो पहले जो भी पास में साकेट होता है उसमें उंगली डाल लेता है। कंडीशंड हो गया। लेकिन अब बिना शाक के शराब नहीं पी सकता है। शराब तो नहीं छूटी, शाक पकड़ गया। अब कृपा करके, शराब छूटे या न छूटे, शाक छुड़वाइए। क्योंकि शराब जब मारेगी, मारेगी; यह शाक का धंधा खतरनाक है, यह अभी भी मार सकता है। अब वह पी ही नहीं सकता है। इधर एक हाथ में प्याली लेता है तो दूसरा हाथ साकेट में डालता है। जिन्दगी इतनी उलझी हुई है। जिन्दगी इतनी आसान नहीं है। तो एक तो जिन्दगी की गणित साफ नहीं है कि जैसा आप सोचते हैं वैसा हो जाएगा। दुख की आकांक्षा सुख नहीं ले आएगी। क्यों? क्योंकि अगर हम गहरे में देखें तो पहली तो बात यह है कि आपने सुख की आकांक्षा की, दुख पाया। अब आप सोचते हैं दुख की आकांक्षा करें तो सुख मिलेगा। लेकिन गहरे में देखें तो अभी भी आप सुख की ही आकांक्षा कर रहे हैं। दुख चाहें तो सुख मिलेगा इसलिए दुख चाह रहे हैं। आकांक्षा सुख की ही है। और सुख की कोई आकांक्षा सुख नहीं ला सकती। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि आदमी अपने को दुख दे रहा है, लेकिन वह दुख इसीलिए दे रहा है कि सुख मिले। पहले सुख दे रहा था ताकि सुख मिले, दुख पाया। अब दुख दे रहा है ताकि सुख मिले, दुख ही पाएगा। क्योंकि आकांक्षा का सूत्र तो अब भी गहरे में वही है। ऊपर सब बदल गया, भीतर आदमी वही है। सच बात यह है दुख चाहा ही नहीं जा सकता। यू कैन नाट डिजायर इट । इम्पासिबल है, असम्भव है। अगर हम ऐसा कहें कि सुख ही चाह है और दुख की तो अचाह ही होती है, चाह नहीं होती है। हां, अगर कभी कोई 'दुख चाहता है तो सुख के लिए ही, लेकिन वह चाह सुख की ही है। दुख चाहा ही नहीं जा सकता। यह असम्भव है। तब हम ऐसा कह सकते हैं, जो भी चाहा जाता है वह सुख है, और जो नहीं चाहा जाता है, वह दुख है। इसलिए दुख के साथ चाह को नहीं जोड़ा जा सकता। और ज आदमी दुख के साथ चाह को जोड़कर तप बनाता है; (दुख + चाह = तप), ऐसी हमारी व्याख्या है जो भी आदमी के साथ दुख चाह को जोड़ता है और तप बनाता है। वह तप को समझ ही नहीं पाएगा। दुख की तो चाह ही नहीं हो सकती । सुख ही पीछे - - Jain Education International 132 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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