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सूर्यास्त के समय, जैसे कोई फूल अपनी पंखुड़ियों को बन्द कर ले- संयम ऐसा नहीं है। वरन सूर्योदय के समय जैसे कोई कली अपनी पंखुड़ियों को खोल ले-संयम ऐसा है। संयम मृत्यु के भय में सिकुड़ गए चित्त की रुग्ण दशा नहीं है। संयम अमृत की वर्षा में प्रफुल्लित हो गए, नृत्य करते चित्त की दशा है। संयम किसी भय से किया गया संकोच नहीं है। संयम किसी प्रलोभन से आर की गयी आदत नहीं है। संयम किसी अभय में चित्त का फैलाव और विस्तार है। और संयम किसी आनन्द की उपलब्धि में अन्तर्वीणा पर पैदा हुआ संगीत है। संयम निषेध नहीं है, विधेय है। निगेटिव नहीं है, पाजिटिव है। लेकिन परंपरा निषेध को मानकर चलती है। क्योंकि निषेध आसान है और विधेय अति दुष्कर। मरना बहुत आसान है, जीना बहुत कठिन है। हमें लगता है कि नहीं, जीना बहुत आसान है, मरना बहुत कठिन। लेकिन जिसे हम जीना कहते हैं, वह सिर्फ मरना ही है और कुछ भी नहीं है।
सिकुड़ जाने से ज्यादा आसान कुछ भी नहीं है। खिलने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं है। क्योंकि खिलने के लिए अंतर-ऊर्जा का जागरण चाहिए। सिकड़ने के लिए तो किसी जागरण की, किसी नयी शक्ति की जरूरत नहीं है। पुरानी शक्ति भी छूट जाए तो सिकुड़ना हो जाता है। नयी शक्ति का उदभव हो तो फैलाव होता है। महावीर तो फूल जैसे खिले हुए व्यक्तित्व हैं। लेकिन महावीर के पीछे जो परंपरा बनती है, उसमें तो सिकुड़ गये लोगों की धारा की श्रृंखला बन जाती है। और फिर पीछे के युगों में इन पीछे चलनेवाले, सिकुड़े हुए लोगों को देखकर ही हम महावीर के संबंध में भी निर्णय लेते हैं। स्वभावतः अनुयायियों को देखकर हम अनुमान करते हैं उनका, जिनका वे अनुगमन करते हैं।
लेकिन अकसर भूल हो जाती है। और भूल इसलिए हो जाती है कि अनुयायी बाहर से पकड़ता है, और बाहर से निषेध ही खयाल में आते हैं। महावीर या बुद्ध या कृष्ण भीतर से जीते हैं और भीतर से जीने पर विधेय ही होता है। अगर किसी को परम आनंद उपलब्ध हो, तो उसके जीवन में, जिन्हें हम कल तक सुख कहते थे, वे छूट जाएंगे। इसलिए नहीं कि वे उन्हें छोड़ रहे हैं बल्कि इसलिए कि अब जो उसे मिला है, उसके लिए जगह बनानी जरूरी है। हाथ में कंकड़-पत्थर थे, वे गिर जाएंगे क्योंकि जिसे हीरे जीवन में आ गए हों, अब कंकड़-पत्थरों को रखने के लिए न सुविधा है, न शक्ति, है, न कारण है। लेकिन वे हीरे तो आएंगे अन्तर के आकाश में। वे हमें दिखाई नहीं पड़ेंगे और हाथों में जो पत्थर थे, वे छूटेंगे, वे हमें दिखाई पड़ेंगे। स्वभावतः हम सोचेंगे कि पत्थर छोड़ना ही संयम है। यह एक बहुत अनिवार्य फैलेसी है जो समस्त जाग्रत पुरूषों के आसपास इकट्ठी होती है। यह स्वाभाविक है, लेकिन बड़ी खतरनाक है। क्योंकि तब हम जो भी सोचते हैं वह सब गलत हो जाता है। लगता है महावीर कुछ छोड़ रहे हैं, यही संयम है। नहीं लगता कि महावीर
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