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________________ जीवन का उत्कर्ष नहीं सराहा, आपको लगता है कि उन्हें परख नहीं है। अगर चोर आकर उसे ले गए, तब भी आप चिंता करेंगे। दीक्षित को यह भावना दी जाती है ताकि वह इतनी सारी सांसारिक वस्तुओं को देखकर दुःखी नहीं हो। साधु होने के कारण वह एक घर से दूसरे घर भिक्षा के लिए जाता है। उस समय उसे यह सोचकर बेचैन नहीं होना चाहिए कि उसके पास मठ की चारदीवारी और एक खाली कमरे के अलावा कुछ भी नहीं है। इसलिए वह उस एकत्व पर ध्यान करता है। 'मैं इस संसार में खाली हाथ आया, केवल अपने अच्छे संस्कारों के साथ। उनकी वजह से मेरा मनुष्य जीवन अनावृत हो रहा है। इतनी सारी सांसारिक वस्तुओं के साथ अपनी पहचान बनाते हुए मैं थककर चूर हो गया हूँ, कुम्हला गया हूँ। अब मैं इस बोझ को नहीं उठाना चाहता।'.... साथ ही, दीक्षित अपने गमन पर चिंतन करता है जो उसे इस संसार से करना है। 'मैं अकेला आया हूँ और अकेला ही जाऊँगा।' यही सत्य है। शायद इससे आप शोकाकुल हो जाएँ। जब भी कोई रचित भ्रम हटता है, तब आप दुःख से घिर जाते हैं। आप तब तक दुःखी रहते हैं जब तक आप उसके पीछे छुपे सत्य को नहीं देखते हैं। तत्पश्चात् आप सुखी हो जाते हैं। मन शायद रोएगा क्योंकि उसने कुछ खोया है, मगर आत्मा हँसेगी क्योंकि उसने कुछ पाया है। इस तरह हम प्रस्थान और गमन अकेले ही करते हैं। तब हम इस दुनियां के साथ क्यों रहते हैं? यह समस्त मानव परिवार किसके लिए है? मित्र किसके लिए हैं? अगर हम अकेले ही आते और जाते हैं, तब हमें इन सबकी आवश्यकता क्यों हैं? इसमें हमारे लिए कुछ बोध है। हम यहाँ इस संसार से सेतु बनाने आए हैं, नाता जोड़ने के लिए, मगर इससे बँधने के लिए नहीं। यही फ़र्क है। सेतु हमें एक पार से दूसरे पार जाने में मदद करता है। बंधन हमें एक पार बाँध देता है और कहीं भी जाने नहीं देता। यह जानते हुए हम बंधन की नहीं, अपितु सेतु की प्रक्रिया का उपयोग करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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