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________________ जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्रेम करता हूँ, क्या मैं उससे कोई माँग कर रहा हूँ? क्या यह कोई सौदा है? क्या यह एक व्यवसाय है?' जब हम प्रेम को व्यवसाय की श्रेणी में डाल देते हैं, तब वह प्रेम नहीं रहता। व्यापार में हम देखते हैं कि नफा कहाँ मिलेगा? वहाँ देने की, समर्पण करने की या स्वीकार करने की कोई भावना नहीं है। जिसे ज़्यादा नफा मिल रहा है, बस उसी से मतलब है। दोनों पक्ष सिर्फ स्वयं के स्वार्थ का विचार करते रहते हैं। अगर रिश्तों में यही सत्य है, तो क्या हम स्वयं को भ्रमित नहीं कर रहे हैं? जब आप इस सत्य को जानने लगेंगे, आप अपने रिश्तों को समझ लेते हैं। आपकी अभिज्ञता बदलने लगती है। आपकी दृष्टि बदल जाती है। आप जान लेते हैं कि किस तरह कुछ दूरी और कुछ जगह देनी चाहिए। रिश्ते और अधिक मीठे बन जाते हैं, अधिक अर्थपूर्ण। फिर दूसरा पक्ष आपसे सीखने लगता है। प्रेम विशाल है। जब आप उस विशालता का समावेश करेंगे, तब आप सबसे प्रेम करने लगेंगे। जब आप सबसे प्रेम करेंगे, तब आप जिससे प्रेम करते हैं, उससे सच्चा प्रेम करेंगे। यह रातों रात होने वाली बात नहीं है। यह एक मंद प्रक्रिया है, एक उत्तरोत्तर उन्नति, न कि एक झटपट जवाब या अल्प समय की संतुष्टि। आपको धैर्य की आवश्यकता है। मेरे गुरु ने मुझसे कहा था, 'पहले तुम्हें सीखना होगा कि वास्तविकता के धरातल पर, सत्य पर कैसे खड़े रहें। उस धरातल का कोई पथ नहीं है। तुम्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना है। एक विशाल क्षेत्र तुम्हारे सम्मुख है। सारी दिशाएँ खुली हैं। इसलिए चले हुए पथ पर मत चलो। उससे तुम एक गंदले रास्ते में फँस जाओगे। ताज़ी खुली ज़मीन में अपना मार्ग बनाओ। तब तुम एक नया पथ बनाओगे, नवीन कदम रखोगे।' नवीनता का एहसास कीजिए। स्वयं से कहिए, 'मैं अपनी अंतर्दृष्टि के आधार पर हर कदम रखता हूँ।' आप ऐसा कर सकेंगे जब आपको अपने कदमों पर श्रद्धा होगी और अपनी शक्ति में विश्वास। . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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