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________________ तृतीय - संसार भावना जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति ___ अपने हृदय में सत्य की जगह बनाने के लिए हमें मिथ्या विचारों के कचरे को साफ करना होगा। उसके लिए हमें मार्ग दर्शन की, अनुप्रेक्षाओं की आवश्यकता है। अंतरावलोकन से हम उसे देख सकते हैं जो सत्य है, खरा है, नित्य है। आंतरिक दृष्टि का उपयोग करके हम विकृत सोच के स्वामित्व से बाहर निकल सकते हैं। हम कल्पना के संसार में क्यों रहते हैं? हम सपनों के महल क्यों बनाते हैं? भय से स्वयं की रक्षा करने के लिए। हम भयभीत क्यों हैं? क्योंकि हमारे भीतर कुछ है जो जानता है कि मन कमज़ोर है और बिखरना उसकी प्रकृति है। मन एक विषय से दूसरे विषय की ओर, एक आकार से दूसरे आकार की ओर कूदता रहता है। हमारा अचेतन मन अपने क्षय होने से भयभीत है। क्षय होने से, खंडित होने से बचने के लिए मन संरक्षण ढूँढ़ता हैपति और पत्नी में, प्रियतम और प्रेमी में, पिता और रक्षक में। सुरक्षा के इस झूठे एहसास में वह आश्वस्त हो जाता है। उसे यह एहसास नहीं है कि इस तरह का बाहरी संरक्षण सिर्फ एक आड़ है। सुरक्षा की खोज में हम अपने चारों तरफ एक घेरा बनाते हैं। इस घेरे को हम प्रेम कह सकते हैं, मगर वास्तविकता में यह सिर्फ आसक्ति या मोह है। यह कागज़ के समान पतले और कमज़ोर प्रेम के खूबसूरत बाहरी आवरण से ढककर सजाया हुआ . मोह है। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा समय आता है जब मन ताश के महल की तरह बिखर जाता है। वह तब तक ही टिका हुआ रहता है जब तक हवा का एक झोंका उसे उड़ा नहीं देता। जब संकट की घड़ी आती है, तब मन टूटने लगता है। आप नैराश्य, तिरस्कार एवं अकेलेपन का एहसास करने लगते हैं। जिंदगी अंधकारपूर्ण, निरर्थक और निराशाजनक नज़र आने लगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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