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जीवन का उत्कर्ष वाला है। जब हम जान लेंगे कि वह कहीं नहीं जाएगा, तब हम उसे अपने पास रखने का प्रयत्न करना छोड़ देते हैं।
यह वैसा ही फर्क है जो एक मोमबत्ती और बिजली की बत्ती में है। खिड़की के पास मोमबत्ती हमेशा पवन के कारण टिमटिमाती रहती है, इसलिए आप उसे एक सुरक्षित आवरण से ढक देते हैं। यह तो उस अवास्तविक 'मैं' की तरह है जिसे हम निरंतर सुरक्षित रखने का प्रयत्न कर रहे हैं, यह जानते हुए भी कि उसकी सुरक्षा सदा सर्वदा के लिए नहीं की जा सकती है। अगर आपके पास एक बिजली की बत्ती है, तो आपको उसकी सुरक्षा करने की ज़रूरत नहीं है। आप इससे भयभीत नहीं है कि वह बुझ जाएगी। पवन उसे नहीं बुझा सकती। आपका वास्तविक 'मैं' ऐसा ही है, सभी परिस्थितियों में सुरक्षित।
यह सतही 'मैं' कहाँ से आता है? इसका सृजन कर्म, परंपरा और संप्रदाय के द्वारा होता है। यह सामाजिक 'मैं' है। भिन्न-भिन्न भौगोलिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक नियमनों के कारण यह लोगों के बीच में दीवारें खड़ी करता है। आपका अवास्तविक 'मैं' किसी दूसरे के 'मैं' की तरह नहीं है क्योंकि जो आपके राष्ट्र, वंश व सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है, वह उसके लिए नहीं है। इसलिए हमारे मानसिक ढाँचे और भावनात्मक आवश्यकताएँ सापेक्ष हैं एवं जो सापेक्ष है, वह नित्य नहीं बन
सकता।
इसीलिए ज्ञानीजन अपने मूल्यों को दूसरों पर थोपने की चेष्टा नहीं करते। वे वस्तुओं को वैसे ही देखते हैं जैसी वे वास्तव में हैं। वे सामाजिक 'मैं' और वास्तविक 'मैं' के बीच का अंतर समझते हैं। वे जानते हैं कि अनित्य 'मैं' उनके नियमनों और सामाजिक मूल्यों की उपज है। इससे आगे जाकर, वे देखते हैं कि कुछ तो ऊँचा चढ़ रहा है। यह उच्चतर 'मैं' किन्हीं स्थानीय या भौगोलिक सीमाओं से बँधा नहीं है। वह खोने के भय से भयभीत नहीं है। वह 'मैं' नित्य है, अमर है। वह 'मैं आपके अंदर है। वह 'मैं' मेरे अंदर है। वह 'मैं' सभी के अंदर है।
आपका संबंध स्वयं के साथ शुरू होना चाहिए। पहले स्वयं के अंदर उस 'मैं' को देखिए, फिर आप उसे सभी में देखने लगेंगे। अगर आप
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