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जीवन का उत्कर्ष
जैसे तुम मुझसे प्रेम करती हो, मैं भी तुम से प्रेम करता हूँ। जब सही समय आएगा, तब मैं आऊँगा।'
नर्तकी को लगा कि उपगुप्त का दिमाग ठिकाने नहीं है। वह वहाँ से चल पड़ी।
यौवन विद्युत के समान है, परछाई के समान, जल के बहाव के समान, सतत चलायमान, वेगवत् । दस वर्ष बीत गए। नर्तकी ने अपने यौवन की ऊर्जा का अत्यधिक उपयोग किया था, अब वह थकान से क्लांत थी । उसने अपने शरीर का ध्यान नहीं रखा था और अब वह त्वचा की व्याधि से व्यथित थी। वह ज्वर से काँप रही थी और उसकी त्वचा पर कई फफोले थे। कोई उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता था। राजा ने भी उसे नगर से निकाल दिया। बेहाल होकर उसने एक वीरान ग्राम में एक छोटी सी झोंपड़ी में शरण ली। वहाँ वह अश्रुओं और अकेलेपन के साथ जीवन के बचे हुए दिन काट रही थी ।
अब समय सही था और एक मानव उससे मिलने आया। उसने नर्तकी का सिर अपनी गोद में लिया। वह ज्वर से काँप रही थी। उस व्यक्ति ने उसके ज़ख़्मों पर, चेहरे पर और सिर पर मलहम का लेप किया।
'तुम कौन हो ?' उसने कमज़ोर आवाज़ में पूछा।
'मैं उपगुप्त हूँ। क्या तुम्हें याद है? मैंने तुमसे वादा किया था। मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। अब मैं तुम्हारा ख्याल रखने आया हूँ।'
'अब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है।' वह ज्वर से कराहने लगी ।
' नहीं,' उसने कहा, 'उस समय तुम्हारे पास देने के लिए जो था, वह अस्थिर था, ऐसा कुछ जिसे तुम स्वयं नहीं रख सकी । अब तुम्हारे पास देने के लिए जो कुछ है, वह असली है। मैं उससे प्रेम करता हूँ जो जाने वाला नहीं है। हमारा संबंध उसी के लिए है। यह आत्मा का संबंध है।
'विगत वर्षों के वैभव और अभिमान में तुमने अपने शरीर, सौंदर्य, धन और ऐय्याश मित्रों के जमघट इन सभी के परिवर्तनशील स्वभाव को
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