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प्रथम - अनित्य भावना अनित्य के भीतर है नित्य
आज हम सत्य के बारह पहलुओं पर ध्यान एवं चिंतन करेंगे। इन पहलुओं पर चिंतन करने से हम जीवन को उसकी वास्तविकता में देखने लगेंगे, सत्य के निकट आने लगेंगे। जब हमारा मन जीवन को उसकी वास्तविकता में नहीं देखता है, तब वह अपनी पूर्वनिर्धारित धारणाओं के आधार पर क्रिया और प्रतिक्रिया करने लगता है। तत्पश्चात्, वह अपनी सारी शक्ति इन धारणाओं को ठोस करने में लगा देता है।
___ जब धारणाएँ ठोस हो जाती हैं, तब जीवन कठोर बन जाता है, काँच के टुकड़े की तरह। जब जीवन में कठोरता आ जाती है, तब बहाव नहीं रहता। तब हम अपने-अपने मतों पर अड़ जाते हैं, अपनी ही कट्टरता में बँध जाते हैं। अपने मतों को कायम रखने के लिए हम लड़ने पर भी उतारू हो जाते हैं। फलस्वरूप, हम अल्प समय के लिए प्रसन्न हो जाते हैं या दु:खी हो जाते हैं। ऐसे समय में अगर हम स्वयं को ध्यान से देखें, तो समझ पाएँगे कि हमने अपनी परिवर्तन शक्ति को खो दिया है। इस तरह हम जीवन के बहाव से अपना संपर्क खो बैठते हैं।
ये बारह पहलू जिन पर हम ध्यान करेंगे, सत्य की अनुभूति के बारह सोपान हैं। ये हमारी आंतरिक अभिज्ञता को जागृत करने के साधन हैं। प्राचीन काल में इन्हें भावनाएँ या अनुप्रेक्षाएँ कहा जाता था। मूल रूप में ये जैन साधुओं को ध्यान के विषयों के रूप में दिए जाते थे, उन दीक्षार्थियों को जिन्होंने हाल ही में सांसारिक जीवन का त्याग किया था, जिससे वे परिचित थे और जिसका स्वाद अभी तक उनके होठों पर था। उन्हें इन चिंतन तत्त्वों में गहराई से उतरना था ताकि अपने अंतर्मन से उन स्वादों को पूरी तरह हटा सकें एवं आलस्य, चिंता, प्रमाद और आसक्तियों से बाहर निकल सकें। जीवन के असली अर्थ को ग्रहण करके वे अपनी वास्तविकता की गहराई तक पहुँच सकें।
आप गंभीर शिष्य हैं, खरे साधक हैं, इसीलिए अब ये भावनाएँ आपको दी जा रही हैं। इन पर चिंतन करने से आप उन आवरणों और
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