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________________ हमारी प्रकृति की वृत्ति १५१ दो का ही उपयोग करेंगे, तो असंतुलन का खतरा रहेगा। मान लीजिए कि कोई आपको बादाम की मिठाई पेश करे, मगर आप जानते हैं कि उसमें भाँग मिली हुई है। पहली प्रतिक्रिया शरीर की होगी । नेत्र उस मिष्ठान के लुभावने आकार पर टिक जाएँगे, उस सुंदर पात्र से आकर्षित होंगे जिसमें वह मिठाई रखी हुई है। नथुने उसकी सुगंध का आस्वादन करेंगे। जिह्वा उसका स्वाद चखने के लिए आतुर हो उठेगी। तदुपरांत मन भी उसकी कामना करते हुए सोचने लगेगा, 'यदि मैं इसका भोग करूँगा, तो कुछ समय के लिए मैं इस नीरस दिनचर्या से मुक्त होकर आनंद - लोक में विचरण कर सकता हूँ।' मन कल्पनालोक में विचरना चाहता है। इसीलिए बच्चों को डिसनीलैंड और बड़ों को मिथक प्रिय लगते हैं। मानव का मन मिथकों के प्रति आकर्षित है। तीसरी प्रतिक्रिया बुद्धि से आती है। यदि बुद्धि भी शरीर और मन की तरफ हो जाए, तब आप किसी भी तर्क से उस मिष्ठान्न को खाना विवेकसम्मत ठहरा देंगे। जब मन, शरीर और बुद्धि मिल जाते हैं, तो तीन का सामना एक से होता है। आत्मा तो सुषुप्तावस्था में है और बहुमत जीत जाता है। यहाँ खतरा हो जाता है क्योंकि निर्णय सर्वसम्मति से नहीं लिया गया है, और जहाँ सर्वसम्मति न हो, वहाँ सौहार्द नहीं रहेगा। जब मन को आत्मा से रोशनी मिलती है, तब आप बुद्धिमता से काम करते हैं। आप प्रतीक्षा करना सीख जाते हैं। जब आपके पास आत्मबोध हो, तब, यद्यपि शरीर और मन मिष्ठान का भोग करना चाहें, आपकी बुद्धि कहती है, 'हाँ, शरीर और मन ! मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम मिष्ठान्न चाहते हो, पर एक बार आदत लग जाए, तो मुझे बार-बार इसकी चाहत होगी। इसमें जो रसायन हैं, वे रक्त धारा में पहुँच जाएँगे और चाहतों को बढ़ाते जाएँगे।' आपकी आंतरिक चेतना आपको सुबोध विकल्प का चयन करने में सहायक बनती है। अब शरीर और मन सहमत हो जाते हैं। हमें शरीर के कंपनों का मनोविज्ञान समझना चाहिए। एक बार आप रसायनों को अंदर आने देंगे, आप उनके गुलाम बन जाएँगे। वे इच्छाओं और तृष्णाओं में परिवर्तित हो जाएँगे। वे विनम्र मेहमानों के समान धीरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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