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________________ विरल अवसर १४३ एक-दूसरे के कपड़े पहने घूम रहे हैं, और कोई भी पूर्ण रूप से नहीं जानता कि असल में कौन क्या है, क्योंकि उनके बाहरी रूप इतने विपरीत हैं। वास्तविकता को देखिए, न कि उसके बाहरी आवरण को । किसी का बाह्य रूप देखकर धोखा मत खाइए। देखिए कपड़े पहने कौन खड़ा है। आँखों से हम जो देखते हैं, वह भ्रामक है क्योंकि असली वस्तु अंदर है। वह मात्र हमारी आँखों से दिखती नहीं है, कान उसे सुन नहीं सकते, न ही हमारे हाथ उसे स्पर्श कर सकते हैं। वह हमारी इंद्रियों से परे है। वह हमारे केन्द्र में स्थित है। उसकी अदृश्य उपस्थिति के सहारे हम इस दृश्य संसार को देख पाते हैं। आप केवल बाह्य को देखते हैं, मगर असली द्रष्टा आपके अंदर है। आत्मा का जन्म नहीं होता है, न ही उसका अंत होता है। जब आप अपनी गहन अनुभूति में इसका एहसास करते हैं, तब आप अपनी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि को छू लेते हैं। बाकी सब उपलब्धियाँ बाह्य हैं। वे बाहर ही रहती हैं और श्मशान घाट में राख बन जाती हैं। पर उस उपलब्धि में आपसे कुछ नहीं छूटता, क्योंकि आप स्वयं अपनी उपलब्धि हैं। चमकदार इसीलिए इस दुर्लभ अवसर पर ध्यान करने में सार्थकता है। हम समझ जाते हैं, 'यह दुर्लभ अंतर्दृष्टि जो मेरे हृदय में प्रकट हुई है, रत्न से भी विरल है। यह मुझसे कभी अलग नहीं होगी। यह इसी पल इसी जगह मुझे पूर्ण बना रही है। यह मेरी आंतरिक दिव्यता है। इसीलिए मैं कह सकता हूँ कि मैंने इसे पा लिया है।' जब भी आपको सांसारिक उपलब्धियों की कमी खले, अपने आपको इस अमूल्य ख़ज़ाने की याद दिलाएँ, इस बहुमूल्य आंतरिक निधि की याद दिलाएँ। हर दिन याद दिलाएँ जब तक आपका मन इसे संपूर्णता से मान न ले। यही आपका काम है मन को शुद्ध करना, बुद्धि को शुद्ध करना, परिपूर्ण शुद्ध । एक बार वह शुद्ध हो जाए, तो वह एक उपयोगी सीढ़ी बन जाएगा जिसकी मदद से आप अपने आपको उठा सकेंगे। तब वह आपको गिराने का कारण नहीं बनेगी। जब आप ऊँचाइयों तक पहुँच जाएँगे, भीतरी स्पष्टता तक पहुँच जाएँगे, आपको वास्तविकता के अंतिम पहलू की अनुभूति हो जाएगी जो है धर्म, आध्यात्मिक सत्व, आंतरिक सत्य । Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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