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________________ १३२ जीवन का उत्कर्ष से हाथ मिलाते हुए बढ़ते चले जाते हैं। हम जहाँ भी हों, चेतन जीवों के साथ संप्रेषण करते और बाँटते हुए, गति, स्थिति, आकाश, काल और पुद्गल से बने इस लोक को एक निमित्त के रूप में देखते हैं जिसके द्वारा हम जीवन का सम्मान कर सकें, अपनी आंतरिक शक्ति को प्रकट कर सकें। आप जीव हैं, एक असीम, अनंत आत्मा ! ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हथियाना चाहिए, जिससे आपको प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। अपने संसार को जानिए और उसका उपयोग कीजिए ! मानव जीवन के इस मंच से आप अपनी वर्तमान स्थिति को देख सकते हैं। अपने आंतरिक लोक में एकत्रित अवरोधों और आकारों के स्वरूप को जानकर, उनके कारण को पहचानकर उन्हें अपने पथ से निकाल दीजिए! अपने हृदय और मन की खिड़कियाँ खोलिए और अपने भीतर के विशाल आकाश की अनुभूति कीजिए! इस पर ध्यान केंद्रित कीजिए: 'मैं एक सजीव, चेतन ऊर्जा हूँ। मुझे भय, लोभ, आसक्ति, क्रोध और अज्ञान की भीतरी दीवारों को पिघलने देना चाहिए। मैं अपने आपको सभी आकारों से मुक्त करना चाहता हूँ और उनसे परे जीना चाहता हूँ।' चिंतन के बिंदु लोक छह घटकों से बना है: जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इन छह तत्त्वों में से केवल जीव चेतन है । मुझे उस सोपान पर पहुँचना है जहाँ मुझे इन अज्ञात तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त होगा । तब मैं जो कुछ भी करूँगा, वह निर्भयता से करूँगा । अंतर्दृष्टि की एक चमक जीवन भर के बोझ को हटा सकती है। जब मुझे जीवन की कीमत मालूम हो जाएगी, मैं किसी भी मूल्य पर अपने दिन को बरबाद नहीं होने दूँगा । खुशी सालों में नहीं गिनी जाती; क्षणों में गिनी जाती है। आत्मा चिकित्सक है; मन रोगी है । दुहरी अभिज्ञता से मैं अपने मन का इलाज कर सकता हूँ और स्वयं को पूर्ण बना सकता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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