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________________ १२६ जीवन का उत्कर्ष दुबारा जुड़ जाते हैं। इन भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के कारण बाह्य रूप भी निरंतर परिवर्तित होते रहते हैं। महावीर ने एक बहुत ही अर्थपूर्ण शब्द का प्रयोग किया - पुद्गल । पुद् अर्थात् भरना और गल अर्थात् गलना । हमारा शरीर हर पल भर भी रहा है और गल भी रहा है। पुरानी कोशिकाएँ नष्ट हो रही है और उनका स्थान नवीन कोशिकाएँ ले रही हैं। कोशिकाओं का यह बनना - बिगड़ना निरंतर जारी रहता है। यह प्रक्रिया दिन में चौबीसों घंटे चलती रहती है, तब भी जब हम निद्रामग्न रहते हैं। जब हम अपने शरीर के पौद्गलिक स्वरूप को जान जाते हैं, तब हमें अभिज्ञता मिलती है कि उसकी देखभाल कैसे करनी है। हम उसे भरने से पहले ठीक प्रकार से खाली करना सीख जाते हैं। योगासनों के अभ्यास से शरीर के विषैले तत्त्वों को नष्ट करते हैं। हम ज़ोर लगाकर उच्छश्वसन करते हैं ताकि शरीर से सारा कार्बन डाइअक्साइड बाहर आ जाए। शरीर को स्वच्छ और स्वस्थ रखने के लिए हमें जानना चाहिए कि मलोत्सर्जन कैसे करें। तब हम शरीर को भोजन और जल के पोषक तत्त्वों से एवं ताज़ी हवा से भरने के लिए तैयार हो जाते हैं। अब हम शरीर को एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। हम उसकी जड़ ऊर्जा की प्रकृति को समझने लगते हैं। वह जीव से भिन्न है जो चेतन ऊर्जा है। शरीर से पहचान स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे सराहने या उसकी निंदा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस, उसे उसकी वास्तविकता में देखने की आवश्यकता है। पुद्गल की प्रक्रिया हमारे आंतरिक लोक पर भी उतनी ही लागू होती है । जिस तरह हमारी कोशिकाएँ निरंतर बदलती रहती हैं, उसी तरह हमारे विचार और भावनाएँ भी निरंतर बदलते रहते हैं। विचार और भावनाएँ पुद्गल के सूक्ष्म रूप हैं। वे आंतरिक लोक के घटक हैं। विचार हमारे अंतर्मन की ईंटें हैं; भावना वह पलस्तर है जो इन ईंटों को जोड़ती है। आप इस प्रक्रिया से ऊपर उठकर देख सकते हैं कि आपने अपने अंतर्मन में जो आकार निर्मित किए हैं, उनका निकासन, क्षय या रूपांतरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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