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________________ १२० जीवन का उत्कर्ष हाथी जितना खाता है, उसकी तुलना में मनुष्य की क्या बिसात? यदि आप चींटी के झुंड में झाँकें, तो वहाँ भोजन सामग्री का अंबार लगा हुआ नज़र आएगा। वर्ष भर वे भोजन सामग्री इकट्ठा करती ही रहती हैं। मधुमक्खियों के बारे में सोचिए। वे भी अपना सारा जीवन संग्रह करने में बिता देती हैं। ऐसे मनुष्य भी हैं जो जीवन भर संग्रह ही करते हैं। वे उम्र भर धन-दौलत, संपत्ति, वस्तुएँ आदि बटोरते रहते हैं और अंत समय में इन सबको पीछे छोड़ जाते हैं। तथा उसके बाद कभी-कभी उनके बच्चे, जिन्हें यह सब दौलत विरासत में मिलती है, उन्हें बेवकूफ कहते हैं और उनकी गाढ़ी कमाई से अपनी विनाशकारी आदतों और व्यसनों को पालते हैं। यदि आपको मानव जीवन महत्त्वपूर्ण लगता है, तो सतर्क रहिए। आपको जानना चाहिए कि यह जीवन एक महान उद्देश्य को साध सकता है। इस उद्देश्य को साधने के लिए मानव देह से बढ़कर कोई उपकरण नहीं है। आपको क्या दिशा लेनी है, इसके बारे में एकदम स्पष्ट रहिए। विचारों की यह स्पष्टता आपके मार्ग, आपकी मनःस्थिति, आपकी दिशा को तय करेगी। मानव जीवन के इस मंच से अवलोकन करेंगे, तो आप जान लेंगे कि आपको या तो ऊपर की ओर जाना है या नीचे की ओर। ये दोनों बिल्कुल ही विपरीत दिशाएँ हैं। इन्हें मिलाना नहीं चाहिए। ऊपर की ओर बढ़ने के लिए अभिज्ञता की आवश्यकता है। नीचे की ओर जाने के लिए आसक्ति की आवश्यकता है। आसक्ति क्या है? वस्तुओं के साथ चिपके रहना। किसी ने कहा है कि आसक्ति में चार बातें हैं: जरा रोना, जरा आहे भरना, जरा झूठ बोलना और ज़रा मरना। आप रोते हैं क्योंकि आपको कोई वस्तु चाहिए। जब वह आपको नहीं मिलती, तो आप आहे भरते हैं। उसे पाने के लिए आपको थोड़ा झूठ बोलना पड़ता है। ऐसा करने से आप अंदर ही अंदर थोड़ा मुरझा जाते हैं। अपनी आत्मा से आप ज़रा परे चले जाते हैं, अलग हो जाते हैं। इसलिए जब आप अपने अंदर इन बातों को उभरते देखें, तो कहिए, 'हे भगवान! मैं क्यों रो रहा हूँ? इसी आसक्ति के कारण! यहाँ पहुँचकर ज़रा असमंजस पैदा होता है। कई लोग पूछते हैं, 'हम जीवन से पलायन क्यों करें? क्या हमें सुख नहीं भोगना चाहिए? क्या हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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