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________________ ११५ आत्म-परिष्कार की कला इसी तरह अगर आपमें कोई व्यसन है, तो आप अपने आपसे नफरत नहीं करते। जब आपको उसकी जानकारी मिलती है, तो आप अपनी आलोचना नहीं करते। यदि आप उसकी वजह से स्वयं को नीचा दिखाएँगे, तो आप उसके साथ एक हो जाएँगे। अगर आप अपने व्यसन के साथ एक हो गए, तो उसे स्वयं से अलग कैसे करेंगे? स्वयं को निकम्मा और निस्सहाय मानने से आप अपनी कमज़ोरी से दूर कैसे हो सकेंगे? आप अपनी कमज़ोरी से तभी दूर जा पाएँगे जब आप उसके अंग नहीं बन गए हैं। इसलिए स्वयं को परम-आत्मा के रूप में देखिए, शुद्ध आत्मा के रूप में, हर दृष्टि से पूर्ण और शुद्ध। अंतत: आपका ध्येय यही है कि आप जान सकें कि आप वास्तव में क्या हैं। आपकी दृष्टि सम्यक होनी चाहिए। यदि आत्मा अपनी प्रकृति से ही अशुद्ध है, तो आप स्वयं को मुक्त कैसे कर पाएँगे? यदि आत्मा शुरू से ही पापी है, तो वह निर्मल और सम्यक कैसे बन सकती है? शुद्ध और निष्कलंक होना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। कुछ व्यसन गहरे रंगों के समान हो जाते हैं। वे आपकी आंतरिक दृष्टि को रंग देते हैं जिससे आप अपनी आत्मा पर ही शक करने लग जाते हैं। आप भूल जाते हैं कि आप भीतर से शुद्ध हैं, प्रकृति से दिव्य हैं। जिस तरह कपड़े पर चढ़े मैल को छुड़ाने के लिए किसी शक्तिशाली परिमार्जक का उपयोग करते हैं, उसी प्रकार जो प्रभाव आपको अपनी दिव्यता की अनुभूति करने नहीं देते, उन्हें दूर करने के लिए आप ध्यान की तेजस्वी शक्ति का सहारा लेते हैं। आपकी वास्तविक आत्मा स्थिर है, एक निर्मल पृष्ठभूमि है। आपके व्यसन इस पर एक रोगाणु की तरह प्रभाव करते हैं। इसी विचार से काम कीजिए। यद्यपि ये उतनी आसानी से आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे क्योंकि दीर्घकाल से उनकी जड़ें जमी हैं, फिर भी यदि आप उनसे छुटकारा पाने के लिए दृढ़ हैं, तो वे टिक नहीं पाएँगे। ऐसे भी कुछ वृक्ष हैं जो कई वर्षों के बाद भी बड़े नहीं होते। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी जड़ों को कभी बढ़ने नहीं दिया जाता और समयसमय पर काटकर छोटा रखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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