SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० जीवन का उत्कर्ष लेते हैं। आप अव्यवस्थित ढंग से काम नहीं करते। आप आत्म-निरीक्षण करते हैं। आप जानते हैं कि क्या अंदर ले रहे हैं और किसे अंदर आने से रोक रहे हैं। आप जानते हैं कि यदि कोई अवांछित वस्तु अंतःकरण में घुस जाए, तो वह वहाँ जड़ें जमा लेगी। इसलिए आप स्वयं से कहते हैं, 'मैं इसे क्यों ले रहा हूँ?" विचारों का निरीक्षण, साथ ही वाणी और संबंधों का निरीक्षण करना आपका स्वभाव बन जाता है। आप इस नियम से अवगत हैं कि संपर्क में आने वाली हर वस्तु जीवन में तरंगें पैदा करती है। अंततः वह आपकी शांति में विघ्न डालती है। इसलिए थोड़ा समय निकालकर अपने संपूर्ण जीवन और अपनी वास्तविक ज़रूरतों पर विचार कीजिए । बस, आप पर यही ज़िम्मेदारी है कि अपने आपसे पूछें, 'मुझे क्या चाहिए? क्यों चाहिए? कितना चाहिए ?' यहाँ पर सब कुछ है, पर हमें सीखना होगा कि चयन कैसे करें? जब हम ये सवाल बार-बार पूछेंगे, तो धीरे-धीरे समझने लगेंगे कि संसार हलवाई की दुकान के समान है जिसे देखकर कभी-कभी हम बच्चों के समान बन जाते हैं। दुकान में रखी मिठाइयाँ रंग-बिरंगी और लार टपकानेवाली हैं। सुंदर कागज़ में लिपटी हैं। वे हमें ललचाती हैं और देखते ही देखते हम उन्हें खाने लग जाते हैं, बिना सोचे कि इनसे हमारे स्वास्थ्य पर, हमारे दाँतों पर, हमारे खून में शक्कर की मात्रा पर क्या असर होगा। जब हमारा मन बालक बन जाता है, वैसी अपरिपक्व अवस्था में है, तो वह हर वस्तु को छीनकर अपने पास रखना चाहता है। साथ ही साथ, वह हर वस्तु को अधिक मात्रा में चाहता है। एक बार यह छीनने की आदत जीवन में आ जाए, वह उसी तरह काम करने लगेगी जिस तरह शक्कर रक्त- धारा में पहुँचने पर करती है। हम तुरंत ऊर्जस्वी महसूस करते हैं, पल भर के लिए हम सातवें आकाश में पहुँच जाते हैं, पर बाद में उतनी ही तीव्रता से हम म्लान पड़ जाते हैं, हमारी सारी ऊर्जा निकल जाती है। इसीलिए आंतरिक अनुशासनों की आवश्यकता है। उनके बिना हम हमेशा एक ऐसे मन द्वारा शासित होंगे जो निरंतर भटकता रहता है, खुशी के शिखर और दुःख के गर्त के बीच । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy