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________________ १०० जीवन का उत्कर्ष निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं, जैसे सूर्योदय का सौंदर्य, बसंत की बहार, बच्चों का नृत्य, और झुर्रियों से भरे वे चेहरे जो सुख और दुःख की कहानी कहते हैं। लेकिन हमारे अंदर भी सौंदर्य का खजाना है, हमारी अपनी गतिशील आत्मा । इस गतिशील आत्मा के बिना हमारी बाहरी आँखें बाहरी दुनियां को भी देख नहीं पाएँगी। हमें उस गतिशील आत्मा को जानना है जिसका कार्य है अनुभव करना, याद रखना और आगे बढ़ना। उसकी उपस्थिति के कारण ही हम भीतरी पिपासा को शांत करना चाहते हैं । यही हमारी सच्ची पहचान है । यह हमारे शरीर के बाहरी खोल के अंदर बैठी हुई है। इस पर ध्यान केंद्रित करने पर हमें बोध मिलता है, 'जिसे मैं आज तक 'मैं' कहता था, वह तो बाहरी खोल मात्र है। यह तो मेरा उपकरण है। सत्व इसके अंदर है। वह सत्व मैं हूँ।' साधक अपने अंतर में देखता हुआ चेतना के प्रत्येक सोपान पर चढ़ता जाता है जब तक कि वह केन्द्र तक न पहुँच जाए, उस आभ्यन्तर मंदिर तक । अंततः आप उस मंदिर तक पहुँचकर उस सिंहासन पर बैठ जाएँगे जो आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। लोग उसे ईश्वर का सिंहासन कहते हैं। वह कुछ इने-गिने लोगों मात्र के लिए आरक्षित नहीं है। वह हममें से हर एक की प्रतीक्षा कर रहा है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति के अंतर में वह सिंहासन है। इसीलिए हमारे अंतर्मन में एक अभिलाषा है, स्वप्न है, है। वह आद्यरूप, वह सिंहासन कभी-कभी हमारा आह्वान करता है, 'मेरे पास आ जाओ!' और साधक उस पुकार को सुनकर आगे बढ़ता है। तलाश लेकिन आगे बढ़ने के लिए, शिखर पर चढ़ने के लिए, आपको बोझमुक्त होना चाहिए। यदि आप पर बहुत सारा सामान लदा हो, तो आप चढ़ नहीं पाएँगे। गुरुत्व बल आपको नीचे खींचेगा। महात्मा बुद्ध मूढ़ नहीं थे कि उन्होंने राजप्रासाद, सुंदर पत्नी और बच्चे सबको छोड़ दिया। वे पलायन नहीं कर रहे थे। वे सत्य की खोज में थे। और न ही महावीर बुद्धिहीन थे जब उन्होंने अपनी पत्नी से वार्तालाप के दौरान कहा, 'प्रिये, हमारा राज्य कहाँ है? क्या यह सिर्फ पृथ्वी पर है? इस तरह का राज्य नष्ट हो जाएगा। इस तरह का राज्य लड़ाई-झगड़े और युद्ध को जन्म देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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