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________________ कंपनों के अंत:प्रवाह पर चिंतन ९३ आत्म-निंदा की भीतरी आदत की वजह से आप अपनी चेतना के ऊपर लादे गए बोझ को उतार नहीं पाते, उस कीचड़ को जो आपकी चेतना को मलिन करता है। स्वयं की अत्यधिक निंदा न करें, वरना आपमें कुछ भी करने या आगे बढ़ने के लिए ताकत नहीं बचेगी। आध्यात्मिक होने के लिए आपको हल्का-फुल्का होना चाहिए। कोई भी व्यक्ति दुःख का भारीभरकम बोझ उठाए हुए हल्का-फुल्का नहीं हो सकता। वह कीचड़ की बहुत भारी गठरी है। दुःखी रहकर आप स्वयं को देख नहीं पाते। सभी पाप दुःख से ही पैदा होते हैं। जब कोई दुःखी होता है, तब वह इतनी पूर्णता से उस भारीपन के साथ अपना तारतम्य बिठा लेता है कि वह इस बोझ से बचने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। वह शराब, नशीले पदार्थ और अन्य व्यसनों को अपना लेता है । वह आत्महत्या तक कर सकता है। सही बोध हल्का होने पर प्राप्त होता है। ऐसी हर चीज़ से बचें जो आपको उदास, अवसादग्रस्त और अप्रसन्न करती है। उसे आने ही न दें, क्योंकि अगर एक बार वह प्रकट हो जाए, तो आपकी पूरी दृष्टि को धूमिल कर देती है। स्वच्छ दृष्टि के अभाव में कैसे देख पाएँगे कि आप वास्तव में निर्मल और शुद्ध हैं? आपकी चेतना को चाहिए खुला, साफ प्रदेश । उसकी प्रकृति ही ऐसी है - असीम, अनंत, देदीप्यमान। आश्रव पर चिंतन करके देखिए कि कैसे वस्तुओं ने आपके भीतरी प्रदेश को भर दिया है। यह आपके बाहरी प्रदेश में भी गोचर होता है । मैंने ऐसे घर देखे हैं जिनमें मेज़ - कुर्सियों का भीड़भड़ाका है। उनमें रहनेवालों के चलने-फिरने के लिए जगह नहीं बची है। वहाँ आप बार- बार मेज़ - कुर्सियों से टकरा जाते हैं। अब देखिए कि क्या अपनी चेतना में भी आप वस्तुओं से, संपत्तियों से, चिंताओं से टकराते रहते हैं? आगे बढ़कर अपने आपसे पूछिए, 'मैं वस्तुएँ क्यों खरीदता हूँ? क्या इसलिए कि मैंने योग के द्वार खुले छोड़ दिए हैं? क्या मैं अपनी आँखों को वस्तुओं की ओर आकृष्ट होने देता हूँ और फिर क्या मैं दौड़कर उनको खरीद लेता हूँ? क्या यह मेरे अहम् के कारण है? क्या मैं वस्तुओं को अपने उपयोग के लिए खरीदता हूँ अथवा दूसरों के सामने दिखावा करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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