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________________ जीवन का उत्कर्ष 'तुम अंदर से शुद्ध हो। तुम्हें स्वयं को अपने विचारों से अलग करना होगा और उन्हें एक-एक करके देखना होगा। पूर्व में तुमने सभी इंद्रियों को, सभी भीतरी दरवाज़ों को खुला छोड़ दिया था। तुम नहीं जानते थे कि जब तुम उनके द्वारा बाहर जाते थे, तब मैला जल भी उन्हीं के द्वारा अंदर घुस आता था। इसलिए इस मैले जल को तुम्हें सुखाना होगा। जब तुम इतनी धुंधली सोच से घिरे हुए हो और छिछले प्रेम-पाशों में उलझे हुए हो, तो अपना स्वच्छ प्रतिबिंब कैसे दिखाई देगा?' 'तब मुझे कैसे जीना चाहिए?' साधक ने कहा, 'जीना, हाँ, तुम्हें जीना ही तो है ! पर इस समय तुम वास्तव में जी नहीं रहे हो। तुम बचकर भाग रहे हो। अब समय आ गया है कि तुम सजग और विवेकशील बनो। अपनी चेतना को साफ करो और तुम्हें अपने जीवन का एहसास होगा।' जब आप कंपनों के अतःप्रवाह पर ध्यान करते हैं, तो आप परखने लगते हैं कि कौन से द्वार खुले रह गए हैं और किस तरह की मलिनता अंदर आ रही है। अब आप देखते हैं कि किस तरह आप नकारात्मक आदतों के शिकार हो रहे हैं। आश्रव का उपचार है संवर। संवर का अर्थ है रुकना - दरवाजों पर ताले लगाकर अंतःप्रवाह को भीतर आने से रोकना। संवर की कुंजी है आश्रव। आप अंत:प्रवाह को तब तक नहीं रोक सकते जब तक यह जान नहीं लें कि वह क्या है। आश्रव भावना हमें सिखाती है कि किस तरह अपनी कमजोरियों, अपने खले द्वारों, अपने भीतरी पाशों और अपनी अनियंत्रित लतों पर नजर रखें। इनमें सर्वप्रथम है कषाय यानी भीतरी आसक्तियाँ, जैसे क्रोध, मान, माया और लोभ। ये गुंडे हैं, सभी एक-दूसरे से मिले हुए हैं और चालाकी से काम करते हैं। ये हमेशा एक साथ प्रकट नहीं होते। इनमें से एक पहले खिड़की से अंदर घुसेगा, फिर द्वार खोलकर दूसरों को भीतर बुला लेगा। इन सभी में गहरा संबंध होता है। __ शायद आप सोचें, 'मुझमें अब ज़रा सा अहम् ही बचा हुआ है।' लेकिन यदि कोई आपके अहम् को चोट पहुँचाए, तो क्रोध उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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