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५७ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान से भी हमारे उक्त कथन का सम्यक समर्थन होता है।
यापनीय परम्परा के ग्रन्थ वरांगचरित (लगभग छठी-सातवीं शती) में नाना प्रकार के पुष्प, धूप और मनोहारी गंध से भगवान् की पूजा करने का उल्लेख है ( १५/१४१,२३ / ६१-७० ) । ज्ञातव्य है कि इस ग्रन्थ में पूजा में वस्त्राभूषण समर्पित करने का उल्लेख भी है (२३/६७) ।
इसी प्रकार दूसरे यापनीय ग्रन्थ पद्मपुराण में उल्लिखित है कि रावण स्नान कर धौतवस्त्र पहन, स्वर्ण और रत्ननिर्मित जिनबिम्बों की नदी के तट पर पूजा करने लगा। उसके द्वारा प्रयुक्त पूजा सामग्री में धूप, चंदन, पुष्प और नैवेद्य का ही उल्लेख आया है, अन्य द्रव्यों का नहीं। देखें
स्थापयित्वा घनामोदसमाकृष्टमधुव्रतैः
धूपैरालेपनैः पुष्पैर्मनोज्ञैर्बहुभक्तिभिः । । - पद्मपुराण, १० / ८६
अतः स्पष्ट है कि प्रचलित अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने की प्रथा यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बरों की अपेक्षा कुछ समय के पश्चात् ही प्रचलित हुई होगी।
दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम हरिवंशपुराण में जिनसेन ने पूजा सामग्री में चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक् निर्देश ही है । अभिषेक में दुग्ध, इक्षुरस, घृत, दधि एवं जल का निर्देश है, पर पूजन सामग्री में जल का कथन नहीं आया है। स्मरण रहे कि प्रक्षालन की प्रकिया का अग्रिम विकास अभिषेक है, जो अपेक्षाकृत परवर्ती है। पूजा के अष्टद्रव्यों का विकास भी शनैः-शनैः हुआ है, इस कथन की पुष्टि अमितगतिश्रावकाचार से भी होती है, क्योंकि इसमें गंध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, और अक्षत इन छः द्रव्यों का ही उल्लेख उपलब्ध होता है ।
वरांगचरित, पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रंथों में इन पूजा द्रव्यों का फलादेश भी है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। इसीप्रकार भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है।
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