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जैनधर्म और तांत्रिक साधना में दो दो स्वरों के उद्घोष के साथ चुटकी बजाना चाहिए। उसका विधान निम्न है
___ ततश्छोटिका विघ्नत्रासर्थम् (विघ्नत्रासर्थं ऋ ऋ ल लव दिशभिः स्वरैः षट्सु दिक्षु प्रतिदिशं द्वाभ्यां द्वाभ्यां स्वराभ्यां छोटिका। अगुष्ठात् तर्जनीमुत्थाप्य छोटिकां दद्याद् इत्याम्नायः)। मुद्रा
तान्त्रिक साधना में मुद्राओं का विशेष महत्त्व है। मुद्रा शब्द 'मुद धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है- प्रसन्नता। अतः जो देवताओं को प्रसन्न कर देती है अथवा जिसे देखकर देवता प्रसन्न होते हैं उसे तन्त्र शास्त्र में मुद्रा कहा जाता है। किन्तु तन्त्रशास्त्र में भी 'मुद्रा' के अनेक अर्थ प्रचलित हैं। इनमें निम्न चार अर्थ मुख्य हैं- हठयोग के प्रसंग में मुद्रा का अर्थ है एक विशिष्ट प्रकार का आसन, जिसमें सम्पूर्ण शरीर क्रियाशील रहता है। पूजा के प्रसंग में मुद्रा का अर्थ हाथ और अंगुलियों से बनायी गई वे विशेष आकृतियां हैं जिन्हें देखकर देवता प्रसन्न होते हैं। जैन और वैष्णव तन्त्रों में मुद्रा से यही अर्थ अभिप्रेत है। तंत्र की सात्विक परम्परा में घृत से संयुक्त भुने हुए अन्न को भी मुद्रा कहा गया है- यह मुद्रा का तीसरा अर्थ है। जबकि वाममार्गी तान्त्रिकों की दृष्टि में मुद्रा का अर्थ वह नारी है जिससे तान्त्रिक योगी अपने को सम्बन्धित करता है- यह मुद्रा का चतुर्थ अर्थ है। पञ्चमकारों में मुद्रा इसी अर्थ में गृहीत है। किन्तु जैनों को मुद्रा का यह अर्थ कभी भी मान्य नहीं रहा है, वे तो मुद्रा के उपरोक्त दूसरे अर्थ को ही मान्य करते हैं। अभिधान राजेन्द्रकोश में मुद्रा शब्द के अन्तर्गत कहा गया है कि हाथ आदि अंगों का विन्यास विशेष मुद्रा कहा जाता है, यथा- योगमुद्रा, जिनमुद्रा, मुक्तासुक्तिमुद्रा आदि। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में कहा गया है, कि देववन्दना, ध्यान या सामायिक करते समय मुख एवं शरीर के विभिन्न अंगों की जो आकृति बनाई जाती है उसे मुद्रा कहते हैं।
__यद्यपि हिन्दू, बौद्ध एवं जैन तीनों ही परम्पराओं की तान्त्रिक साधना एवं पूजा में मुद्रा का महत्त्वपूर्व स्थान माना गया है, फिर भी मुद्राओं की संख्या, स्वरूप, नाम और परिभाषाओं को लेकर न केवल विभिन्न परम्पराओं में मतभेद पाया जाता है अपितु एक परम्परा में भी अनेक मान्यताएं हैं। हिन्दू परम्परा में शरदातिलक (२३/१०७-११४) में नौ मुद्राओं का उल्लेख है, तो वहीं ज्ञानार्णवतन्त्र (४/३१-४७) में तीस से अधिक मुद्राओं का निर्देश किया गया है। विष्णुसंहिता (७) के अनुसार तो मुद्राएँ अनगिनत हैं। देवीपुराण
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