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________________ ३२२ तान्त्रिक साधना के विधि-विधान मन्त्रसाधना नहीं करनी चाहिए। वस्तुतः तन्त्र साधना में न्यास, रक्षाकवच, व्रजपञ्जर, आत्मरक्षा, सकलीकरण आदि के जो विधिविधान हैं वे दुःस्वप्न, दुर्निमित्त, शत्रु आदि के भयों से तथा मंत्र की शक्ति के दुष्प्रभाव से अपनी रक्षा करने हेतु ही हैं। मेरी दृष्टि में इन सबमें विधि भेद, क्रमभेद या मंत्रभेद होते हुए भी प्रयोजनभेद नहीं है। न्यास सकलीकरण के पूर्व सभी जैन आचार्यों ने न्यास का उल्लेख किया है। न्यास आत्मरक्षा हेतु किया जाता है। इसलिए इसे रक्षाकवच या वज-पञ्जर भी कहते हैं। जैन आचार्यों की यह मान्यता है कि बीजाक्षरों अथवा पंचपरमेष्ठि के न्यास के द्वारा जो मान्त्रिक रक्षाकवच निर्मित किया जाता है उससे मंत्र अथवा मंत्र देवता के कुपित होने से जिन दुष्परिणामों की संभावना होती है, उनसे व्यक्ति की रक्षा होती है। जैनपरम्परा में न्यास की दो प्रमुख पद्धतियां परिलक्षित होती हैं। प्रथम पद्धति में बीजाक्षरों से कराङ्गन्यास अथवा अङ्गन्यास किया जाता है। दूसरी पद्धति में शरीर के विभिन्न अंगों में पंञ्चपरमेष्ठि, नवपद अथवा चौबीस तीर्थंकरों की स्थापना करके भी अङ्गन्यास किया जाता है। ज्ञातव्य है कि बीजाक्षरों के द्वारा न्यास करने की पद्धति जैन परम्परा में अन्य तान्त्रिक परम्पराओं से ही गृहीत हुई है और उनके समरूप ही है। जबकि पंचपरमेष्ठि, नवपद आदि के द्वारा न्यास की पद्धति जैन आचार्यों के द्वारा अपनी परम्परा के अनुरूप विकसित की गई है। अन्य तान्त्रिक परम्परओं के समान ही जैन परम्परा में भी न्यास के दोनों रूप मिलते हैं- १.कराङ्गन्यास और २. अङ्गन्यास । कराङ्गन्यास में वामकर के अगूठे और अंगुलियों में बीजाक्षरों का निम्न क्रम में न्यास किया जाता हाँ वामकराङगुष्ठे तर्जनया ह्रीं च मध्यमायां हूँ। है पुनरनामिकायां कनिष्ठिकायां च हाँः सुस्यात् ।। अर्थात् वामकर के अंगूठे के अग्रभाग में, तर्जनी के अग्रभाग में ही, मध्यमा के अग्रभाग में हूँ, अनामिका के अग्रभाग में हौं और कनिष्ठा के अग्रभाग में हँ: का न्यास किया जाता है। इसी प्रकार बीजाक्षरों से अङ्गन्यास करने की विधि निम्न हैहृत्-कण्ठ-तालु-भ्रूमध्ये ब्रह्मरन्ध्र यथाक्रम- हाँ, ही, हूँ, हौं, हैं:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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