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________________ २९४ ध्यान साधना और जैनधर्म ध्यान की इस समग्र प्रक्रिया में, जो सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो गई है और ये सब ध्यान संबंधी प्रक्रियाएं रूढ़ि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं की उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं से चेतना को सतत रूप से जाग्रत या ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थिर रखने का प्रयास किया जाता रहा है। आगम युग तक जैन धर्म में ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आत्मशुद्धि या चारित्रशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था। मध्ययुग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएं प्रमुख बनीं तो उनके प्रभाव से जैन ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। आगमिक काल में ध्यान साधना में शरीर, इन्द्रिय, मन और चित्त वृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को द्रष्टा भाव या साक्षीभाव में स्थिर किया जाता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएं शान्त हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैतसिक समत्व अर्थात् सामायिक की साधना थी, जिसका कुछ रूप आज भी विपश्यना में उपलब्ध है। किन्तु जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा वैसे-वैसे जैन साधना पद्धति में भी परिवर्तन आया। जैन ध्यान पद्धति में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी और वारुणी जैसी धारणाएं सम्मिलित हुईं। बीजाक्षरों और मंत्रों का ध्यान करने की परम्परा विकसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का प्रयास भी हुआ। यह स्पष्ट है कि यह सब कौलतन्त्र एवं हठयोग से जैन परम्परा में आया। यदि हम जैन परम्परा में ध्यान की प्रक्रिया का इतिहास देखते हैं तो यह स्पष्ट लगता है कि उस पर अन्य भारतीय ध्यान एवं योग की परम्पराओं का प्रभाव आया है, जो हरिभद्र के पूर्व से ही प्रारंभ हो गया था। हरिभद्र उनकी ध्यान विधि को लेकर भी उसमें अपनी परम्परा के अनुरूप बहुत कुछ परिवर्तन किये थे। पूर्व मध्ययुग की जैन ध्यान साधना विधि उस युग की योग-साधना विधि से पर्याप्त रूप से प्रभावित हुई थी। .. मध्ययुग में ध्यान साधना का प्रयोजन भी बदला । प्राचीन काल में ध्यान साधना का प्रयोजन मात्र आत्म-विशुद्धि या चैतसिक समत्व था, किन्तु उमास्वाति (ईसा की तीसरी-चौथी शती) के युग में उसके साथ विभिन्न ऋद्धियों और लब्धियों की चर्चा भी जुड़ी और यह माना जाने लगा कि ध्यान साधना से विविध अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वति ने ध्यान से सिद्ध होने वाली विविध लब्धियों की विस्तृत चर्चा की है। जिनका उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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