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________________ २८९ जैनधर्म और तांत्रिक साधना ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर को भी भस्मीभूत कर दिया है। इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की धारणा करे। (ग) वायवीय धारणा- आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है और मेरे देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी उसे वह प्रचण्ड पवन वेग से उड़ाकर ले जा रहा है । अंत में यह चिंतन करना चाहिए कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। (घ) वारुणीय धारणा- वायवीय धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि अर्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'व' से उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है उसने शरीर और कर्मों की जो भस्मी उड़ी थी उसे भी धो दिया है। (ङ) तत्त्ववती धारणा- उपर्युक्त चारों धारणाओं के द्वारा सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्ट कर्मों के समाप्त हो जाने पर साधक पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्ज्वल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्त्व का चिंतन करे और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी शुद्ध बुद्ध आत्मा अरहंत स्वरूप है। इस प्रकार की ध्यान साधना के फल की चर्चा करते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि पिण्डस्थ ध्यान के रूप में इन पाँचों धारणाओं का अभ्यास करने वाले साधक का उच्चाटन, मारण, मोहन, स्तम्भन आदि सम्बन्धी दुष्ट विद्यायें और मांत्रिक शक्तियाँ कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती हैं। डाकिनी-शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियाँ, भूत, प्रेत, पिशाचादि दुष्ट प्राणी उसके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं हैं। उसके तेज से वे त्रास को प्राप्त होते हैं। सिंह, सर्प आदि हिंसक जन्तु भी स्तम्भित होकर उससे दूर ही रहते हैं। ___ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में (७/८-२८) तान्त्रिक परम्परा की इन पाँचों धारणाओं को स्वीकार करके भी उन्हें जैन धर्मदर्शन की आत्मविशुद्धि की अवधारणा से योजित किया है। क्योंकि इन धारणाओं के माध्यम से वे अष्टकर्मों के नाश के द्वारा शुद्ध आत्मदशा में अवस्थित होने का ही निर्देश करते हैं। किन्तु जब वे इसी पिण्डस्थ ध्यान की पाँचों धारणाओं के फल की चर्चा करते हैं, तो स्पष्ट ऐसा लगता है कि वे तांत्रिक परम्परा से प्रभावित हैं, क्योंकि यहाँ उन्होंने उन्हीं भौतिक उपलब्धियों की चर्चा की है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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