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________________ २८७ जैनधर्म और तांत्रिक साधना वस्तुतः जैन तंत्र में सकलीकरण, आत्मरक्षा, पूजाविधान और षट्कर्मों के लिए मन्त्रसिद्धि के विविध विधान हिन्दू तन्त्र से प्रभावित हैं। मात्र इतना ही नहीं, जैन ध्यान साधना, जो श्रमणधारा की अपनी मौलिक साधना पद्धति है, पर भी हिन्दूतंत्र-विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है। विशेष रूप से यह प्रभाव ध्यान के आलम्बन या ध्येय को लेकर है। जैन परम्परा में ध्यान साधना के अन्तर्गत विविध आलम्बनों की चर्चा तो प्राचीन काल से थी, क्योंकि ध्यान साधना में चित्त की एकाग्रता के लिए प्रारम्भ में किसी न किसी विषय का आलम्बन तो लेना ही पड़ता है। प्रारम्भ में जैन परम्परा में आलम्बन के आधार पर धर्म ध्यान को निम्न चार प्रकारों में विभाजित किया गया था१. आज्ञाविचय, २. अपायविचय ३. विपाकविचय ४. संस्थानविचय इन चारों की विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुकें हैं। यह भी स्पष्ट है कि धर्म ध्यान के ये चारों आलम्बन जैनों के अपने मौलिक हैं। किन्तु आगे चलकर इन आलम्बनों के संदर्भ में तंत्र का प्रभाव आया और लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती से आलम्बन के आधार पर धर्म ध्यान के नवीन चार भेद किये गये १. पिण्डस्थ २. पदस्थ ३. रूपस्थ ४. रूपातीत यह स्पष्ट है कि धर्म ध्यान के इन आलम्बनों की चर्चा मूलतः कौलतन्त्रों से प्रभावित है, क्योंकि शुभचन्द्र (ग्यारहवीं शती) और हेमचन्द्र (बारहवीं शती) के पूर्व हमें किसी भी जैन ग्रंथ में इनकी चर्चा नहीं मिलती है। सर्वप्रथम शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के अन्त में ध्यान के इन चारों आलम्बनों की चर्चा की है। इनके पूर्व के किसी भी आचार्य ने इन चारों आलम्बनों की कोई चर्चा नहीं की है। मात्र यही नहीं, पिण्डस्थ- ध्यान के अन्तर्गत् धारणा के पाँच प्रकारों की जो चर्चा हुई है, वह हिन्दूतंत्र से प्रभावित है। ये पाँच धारणाएँ हैं- १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुति, ४. वारुणी और ५. तत्त्ववती। वस्तुतः ध्यान के इन चार आलम्बनों में और पञ्च धारणाओं में ध्यान का विषय स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। आगे हम संक्षेप में इनकी चर्चा करेंगे। ध्यान के इन चारों आलम्बनों या ध्येयों और पांचों धारणाओं को जैनों ने कौलतंत्र से गृहीत करके अपने ढंग से किस प्रकार समायोजित किया है, यह निम्न विवरण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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