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________________ २८५ जैनधर्म और तांत्रिक साधना भेदविज्ञान का ज्ञाता होना। ४) व्युत्सर्ग- शरीर, उपधि आदि के प्रति ममत्व भाव का पूर्ण त्याग। दूसरे शब्दों में पूर्ण निर्ममत्व से युक्त होना । इन चार लक्षणों के आधार पर हम यह बता सकते हैं कि किसी व्यक्ति में शुक्ल ध्यान संभव होगा या नहीं। स्थानांग में शुक्ल ध्यान के चार आलम्बन बताये गये हैं-५- १. शान्ति (क्षमाभाव). २. मुक्ति (निर्लोभता). ३. आर्जव (सरलता) और ४. मार्दव (मृदुता)। वस्तुतः शुक्ल ध्यान के ये चार आलम्बन चार कषायों के त्याग रूप ही हैं। शान्ति में क्रोध का त्याग है और मुक्ति में लोभ का त्याग है। आर्जव माया (कपट) के त्याग का सूचक है तो मार्दव मान कषाय के त्याग का सूचक है। इसी ग्रन्थ में शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख भी हुआ है किन्तु ये चार अनुप्रेक्षाएं समान्यरूप से प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं से क्वचित् रूप में भिन्न ही प्रतीत होती हैं । स्थानांग में शुक्ल ध्यान की निम्न चार अनुप्रेक्षाएं उल्लिखित हैं--- १) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा- संसार में परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना। २) विपरिणामानुप्रेक्षा– वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार करना। ३) अशुभानुप्रेक्षा- संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार करना। ४) अपायानुप्रेक्षा- राग, द्वेष से होनेवाले दोषों का विचार करना। शुक्ल ध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी जैन परम्परा के निकट ही है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं। १) सवितर्कसविचारविवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान । २) वितर्क विचाररहित समाधिज प्रीतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान। ३) राग और विराग की प्रति उपेक्षा तथा स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त-उपेक्षा स्मृति सुखविहारी तृतीय ध्यान। ४) सुख दुःख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख अदुःखात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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