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________________ २७६ ध्यान साधना और जैनधर्म ध्यान में जो ध्येय बनता है वह वस्तु नहीं, चित्त की वृत्ति होती है। ध्यान में चित्त ही ध्येय का आकार ग्रहण करके हमारे सामने उपस्थित होता है अतः ध्याता भी चित्त है और ध्येय भी चित्त है । जिसे हम ध्येय कहते हैं, वह हमारा अपना ही निज रूप है, हमारा अपना ही प्रोजेक्शन (Projection) है। ध्यान वह कला है जिसमें ध्याता अपने को ही ध्येय बनाकर स्वयं उसका साक्षी बनता है । हमारी वृत्तियाँ ही हमारे ध्यान का आलम्बन होती हैं और उनके माध्यम से हम अपना ही दर्शन करते हैं । ध्यान के अधिकारी ध्यान को व्यापक अर्थों में ग्रहण करने पर सभी व्यक्ति ध्यान के अधिकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आर्त और रौद्र ध्यान तो निम्नतम प्राणियों में भी पाया जाता है । अपने व्यापक अर्थ में ध्यान में प्रशस्त 1 और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यानों का समावेश होता है। अतः हमें यह मानना होता है कि इन अप्रशस्त ध्यानों की पात्रता तो आध्यात्मिक दृष्टि से अपूर्ण रूप से विकसित सभी प्राणियों में किसी न किसी रूप में रहती ही है । नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि सभी में आर्तध्यान और रौद्रध्यान पाये जाते हैं । किन्तु जब हम ध्यान का तात्पर्य केवल प्रशस्त ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान से लेते हैं तो हमें यह मान होगा कि इन ध्यानों के अधिकारी सभी प्राणी नहीं हैं। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में किस ध्यान का कौन अधिकारी है इसका उल्लेख किया है। ५७ इसकी विशेष चर्चा हमने ध्यान के प्रकारों के प्रसंग में की है । साधारणतया चतुर्थ गुणस्थान अर्थात् सम्यक् दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् ही व्यक्ति धर्मध्यान का अधिकारी बनता है। धर्मध्यान की पात्रता केवल सम्यक् दृष्टि जीवों को ही है। आर्त और रौद्र ध्यान का परित्याग करके अपने को प्रशस्त चिन्तन से जोड़ने की सम्भावना केवल उसी व्यक्ति में हो सकती है, जिसका विवेक जाग्रत हो और जो हेय, ज्ञेय और उपादेय के भेद को समझता हो । जिस व्यक्ति में हेय-उपादेय अथवा हितअहित के बोध का ही सामर्थ्य नहीं है, वह धर्मध्यान में अपने चित्त को केन्द्रित नहीं कर सकता । यह भी स्मरणीय है कि आर्त और रौद्र ध्यान पूर्व संस्कारों के कारण व्यक्ति में सहज होते हैं। उनके लिए व्यक्ति को विशेषप्रयत्न या साधना नहीं करनी होती, जबकि धर्मध्यान के लिए साधना (अभ्यास) आवश्यक है । इसीलिए धर्मध्यान केवल सम्यक् दृष्टि को ही हो सकता है। धर्मध्यान की साधना के लिए व्यक्ति में ज्ञान के साथ-साथ वैराग्य / विरति भी आवश्यक मानी गई है और इसलिए कुछ लोगों का यह मानना भी है कि धर्मध्यान पांचवें गुणस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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