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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करने के पूर्व यह विचार कर लेना आवश्यक है कि सामान्यतः भारतीय धर्मों में और विशेषरूप से जैन धर्म में तान्त्रिक साधना का विकास क्यों हुआ और किस क्रम में हुआ?
प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का विकास
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मानव प्रकृति में वासना और विवेक के तत्त्व उसके अस्तित्व काल से ही रहे हैं, पुनः यह भी एकसर्वमान्य तथ्य है कि पाशविक वासनाओं, अर्थात् पशु तत्त्व से ऊपर उठकर देवत्व की ओर अभिगमन करना यही मनुष्य के जीवन का मूलभूत लक्ष्य है। मानव प्रकृति में निहित इन दोनों तत्त्वों के आधार पर दो प्रकार की साधनापद्धतियों का विकास कैसे हुआ इसे निम्न सारिणी द्वारा समझा जा सकता है
मनुष्य
देह
चेतना
वासना
विवेक
भोग
त्याग
अभ्युदय (प्रेय)
निःश्रेयस् मोक्ष (निर्वाण)
स्वर्ग
कर्म
कर्मसंन्यास
प्रवृत्ति
प्रवर्तक धर्म
निवृत्ति निवर्तक धर्म आत्मोपलब्धि
'अलौकिक शक्तियों की उपासना
समर्पणमूलक
यज्ञमूलक चिन्तन प्रधान कर्ममार्ग ज्ञानमार्ग
का समान अव
देहदण्डनमूलक
भक्तिमार्ग
तपमार्ग
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