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तन्त्र - साधना और जैन जीवनदृष्टि साधनाओं का यही रूप अधिक प्रचलित रहा है। ऐतिहासिक एवं साहित्यिक साक्ष्य भी तन्त्र के इसी स्वरूप का समर्थन करते हैं।
भोगमूलक जीवनदृष्टि और वासनोन्मुख तन्त्र की इस जीवनदृष्टि के समर्थन में भी बहुत कुछ कहा गया है। कुलार्णव में कहा गया है कि सामान्यतया जिन वस्तुओं के उपभोग को पतन का कारण माना जाता है उन्हें कौलतन्त्र में महात्मा भैरव ने सिद्धि का साधन बताया है। इसी प्रकार न केवल हिन्दू तांत्रिक साधना में अपितु बौद्ध परम्परा में भी प्रारम्भ से ही कठोर - साधनाओं के द्वारा आत्मपीड़न की प्रवृत्तियों को उचित नहीं माना गया । भगवान बुद्ध ने मध्यममार्ग के रूप में जैविक मूल्यों की पूर्ति हेतु भोगमय जीवन का भी जो आंशिक समर्थन किया था वही आगे चलकर बौद्ध धर्म में वज्रयान के रूप में तांत्रिक भोगमूलक जीवनदृष्टि के विकास का कारण बना और उसमें भी निवृत्तिमय जीवन के प्रति विरोध के स्वर मुखरित हुए। चाहे बुद्ध की मूलभूत जीवनदृष्टि निवृत्तिमार्गी रही हो, किन्तु उनके मध्यममार्ग के आधार पर ही परवर्ती बौद्ध आचार्यों ने वज्रयान या सहजयान का विकास कर भोगमूलक जीवन दृष्टि को समर्थन देना प्रारम्भ कर दिया। गुह्यसमाज तन्त्र में कहा गया है कि
सर्वकामोपभोगैश्च सेव्यमानैर्यथेच्छतः । अनेन खलु योगेन लघु बुद्धत्वमाप्नुयात् ।। दुष्करैर्नियमैस्तीत्रैः सेव्यमानो न सिद्धयति । सर्वकामोपभोगैस्तु सेवयंश्चाशु सिद्धयति ।। ( गुह्यसमाजतंत्र पृ० २७)
भोगमूलक जीवनदृष्टि के समर्थकों का तर्क यह है कि कामोपभोगों से विरत जीवन बिताने वाले साधकों में मानसिक क्षोभ उत्पन्न होते होंगे, कामभोगों की ओर उनकी इच्छा दौड़ती होगी और विनय के अनुसार वे उसे दबाते होंगे, परन्तु क्या दमनमात्र से चित्तविक्षोभ सर्वथा चला जाता होगा, दबी हुई वृत्तियाँ जाग्रतावस्था में न सही, स्वप्नावस्था में तो अवश्य ही चित्त को मथ डालती होंगी। इन प्रमथनशील वृत्तियों को दमन करने से दबते न देख, अवश्य ही साधकों ने उन्हें समूल नष्ट करने के लिए संयम की जागरूक अवस्था में थोड़ा अवसर दिया कि वे भोग का भी रस ले लें, ताकि उनका सर्वथा शमन हो जाये और वासनारूप से वे हृदय के भीतर न रह सकें । अनंगवज्र ने कहा है कि चित्तक्षुब्ध होने से कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती, अतः इस तरह बरतना चाहिए जिसमें मानसिक क्षोभ उत्पन्न ही न हो
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