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________________ १५७ स्तोत्रपाठ, नामजप एवं मन्त्रजप अपनी आत्मा में विकसित करने के लिए ही है, अपनी आत्मा में प्रसुप्त परमात्म तत्त्व को प्रकट करने के लिए है। अतः जैन-परम्परा में स्तवन या गुणस्मरण का मूल प्रयोजन आत्मविशुद्धि ही रहा है। जैनदर्शन में स्तवन के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं अजकुलगत केशरी लहेरे, निजपद सिंह निहाल । तिम प्रभुभक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल।। जिस प्रकार अज कुल में पालित सिंह शावक वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार साधक तीर्थंकरों के गुणसंकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व का शोध कर लेता है। स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है। अतः जैन साधना में भगवान की स्तुति निरर्थक नहीं है। उसमें भगवान की स्तुति प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और व्यक्ति के सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, वह उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरक भी बनती है। अतः भगवान की स्तुति के माध्यम से व्यक्ति अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। वस्तुतः स्तुति परमात्मा के व्याज से अपने ही शुद्ध आत्म स्वरूप का बोध कराती है। यद्यपि इसमें प्रयत्न व्यक्ति का अपना ही होता है, तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्ररेणा का निमित्त तो होता ही है। उत्तराध्ययनसूत्र (२६/६) में कहा है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शनविशुद्धि होती है और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। फिर भी इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण एवं चरित्र की विशुद्धि ही है। कालान्तर में भक्तिमार्गीय एवं तंत्र के प्रभाव से जैन परम्परा में स्तुति, गुणस्मरण, नामस्मरण आदि का प्रयोजन परिवर्तित हुआ है और जैन परम्परा में भी भक्त अपने आराध्य से आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ भौतिक कल्याण की कामना करने लगे। इसके फलस्वरूप वीतराग तीर्थंकरों के और उनके शासनरक्षक यक्ष-यक्षियों के याचना प्रधान स्तोत्र लिखे जाने लगे। इस प्रकार के याचना परक स्तोत्र साहित्य में सर्वप्रथम हमें उवसग्गहर (उपसर्गहर) स्तोत्र मिलता है। इसे भद्रबाहु की कृति माना जाता है किंतु मेरी दृष्टि में यह भद्रबाहु प्रथम की कृति न होकर वराहमिहिर के भाई एवं नैमित्तिक भद्रबाहु द्वितीय (लगभग छठी शती) की कृति होनी चाहिए। इसमें पार्श्वनाथ और उनके यक्ष पार्श्व (धरणेन्द्र) से रोग-व्याधि, सर्पविष, भूत-प्रेत बाधा आदि को दूर करने की प्रार्थना की गयी है। मेरी दृष्टि में तांत्रिक परम्परा से प्रभावित होकर लिखा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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