________________
अध्याय-६ स्तोत्रपाठ, नामजप एवं मन्त्रजप तांत्रिक साधना में इष्ट देवता की प्रसन्नता के हेतु ध्यान के साथ-साथ स्तुति, नामसंकीर्तन और जप का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इष्ट देवता की स्तुति एवं नामस्मरण के साथ-साथ विभिन्न मंत्रों की सिद्धि के लिए उन मंत्रों का या उनके अधिष्ठायक देवता का विभिन्न संख्याओं में जप करने के विधान भी हमको न केवल हिन्दू-तांत्रिक परम्परा के ग्रन्थों में, अपितु जैन परम्परा के तंत्र सम्बन्धी ग्रन्थों में भी मिलते हैं। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या ध्यान साधना के समान ही नामस्मरण या जप साधना की भी जैनों की अपनी कोई मौलिक परम्परा रही है। हमें जैनागमों में और ६वीं शती के पूर्व के जैन ग्रन्थों में जप साधना और उससे संबंधित विधि-विधानों के कोई विशेष उल्लेख देखने को नहीं मिलते हैं। जो भी प्राचीन उल्लेख उपलब्ध हैं वे मात्र स्तुतियों से संबंधित हैं। प्राचीन आगमों में वीरस्तुति (वीरत्थुई), शक्रस्तव (नमोत्थुणं), चर्तुविंशतिस्तव (लोगस्स) और पञ्चनमस्कार से संबंधित संदर्भ ही मिलते हैं।
जैन परम्परा में नामस्मरण एवं जपसाधना के हमें जो भी उल्लेख प्राप्त होते हैं वे सभी प्रायः ६वीं शती के पश्चात् के हैं और मुख्यतः भक्तिमार्गी एवं तांत्रिक परम्परा के प्राभाव से ही विकसित हुए हैं। स्तुतियों से संबंधित संदर्भ आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती एवं आवश्यकसूत्र जैसे प्राचीन आगमों में उपलब्ध है। किन्तु नामस्मरण की परम्परा इससे परवर्ती है। जिनसहस्रनाम का सर्वप्रथम उल्लेख जिनसेन (६वीं शती) के आदिपुराण में मिलता है। मंत्रों के जप संबंधी निर्देश तो इसकी अपेक्षा भी परवर्ती हैं। वे ईसा की १०वीं शताब्दी के बाद के ग्रंथों में ही उपलब्ध होते हैं। स्तोत्र/स्तुति पाठ और जैनधर्म
वैदिक धारा में स्तुति की परम्परा तो ऋग्वेद के काल से चली आ रही है। जैनपरम्परा में भी प्राचीन आगमिक ग्रंथों में स्तुति या स्तोत्र उपलब्ध होते हैं। आचारांग का उपधानश्रुत (ई०पू० चतुर्थ शती), सूत्रकृतांग की वीरस्तुति (ई०पू० तीसरी शती), भगवतीसूत्र एवं कल्पसूत्र में उपलब्ध शक्रस्तव (लगभग ई०पू० प्रथम शती) तथा आवश्यकसूत्र का चतुर्विंशतिस्तव (ईसा की प्रथम शती) जैन परम्परा के स्तोत्र साहित्य के प्राचीनतम रूप हैं। आज भी श्वेताम्बर जैन क्रियाकाण्डों में नमस्कार मंत्र के साथ-साथ चतुर्विंशतिस्तव और शक्रस्तव के बोले जाने की जीवित परम्परा है। रायपसेनीयसुत्त (लगभग प्रथम-द्वितीय शती)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org