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________________ ११७ मंत्र साधना और जैनधर्म है वह अपने कार्य को निर्विघ्न पूरा करता है। विशिष्ट वर्धमान विद्याएँ (अ) ॐ वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे, जए विजयंते अपराजिए अणिहए ठः ठः स्वाहा। यह विशिष्ट वर्धमान विद्या का मार्ग में स्मरण करने पर चोर, सिंह आदि का भय दूर होता है। युद्ध में स्मरण करने पर विजय प्राप्त होती है। इस विद्या से अभिमंत्रित मुट्ठी में रखी वस्तु जिसे दी जाती है वह शान्ति को प्राप्त करता है। (ब) ॐ नमो भगवओ अरहओवद्धमाणस्स सुर-असुर-तेलुक्कपूइअस्स वेगे वेगे महावेगे निद्धतरे निरालंबे विसि विसि फुहि फुहि उयरंते पविसामि। अंतरहिओ भवामि मा मे पविसंतु पावगा ठः ठः स्वाहा। इस विद्या से अभिमंत्रित पुष्पों और अक्षतों से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान महावीर की १००८ बार पूजा करने पर यह विद्या सिद्ध होती है। इस विद्या से अभिमंत्रित हो व्यक्ति जहाँ जाता है वहाँ सबका प्रिय बनता है। उपवासपूर्वक जिनेश्वर देव का स्मरण करते हुए इस विद्या का स्मरण कर अक्षत आदि कोठार में डालने पर धन-धान्यादि की वृद्धि होती है। - हमें चतुर्विंशतिजिन सम्बन्धी इन विद्याओं के उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में श्री सूरिमन्त्रकल्पसंदोह में और दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री कुन्थुसागर जी द्वारा रचित लघुविद्यानुवाद में मिले। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हमने यह पाया कि लघुविद्यानुवाद में जो मंत्र दिये गये हैं वे प्रथम तो अत्यन्त ही अशुद्ध छपे हुए हैं। दूसरे सूरिमंत्रकल्पसंदोह से उसमें कई स्थानों पर पाठभेद भी हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में जो प्रमुख अन्तर है वह यह है कि लघुविद्यानुवाद में विद्या या मन्त्र के प्रारम्भ में 'ॐ नमो भगवउ अरहऊ...... जिनस्स सिज्झउ मे, भगवई महवई महाविद्या' इतना पाठ हर विद्या के साथ में अधिक है। जिस-जिस तीर्थंकर से सम्बन्धित जो-जो विद्याएँ हैं उनमें तीर्थंकर का नाम परिवर्तित करके इतना अंश समान ही रखा गया है। जबकि सूरिमन्त्रकल्पसंदोह में मात्र विद्या सम्बन्धी संक्षिप्त मंत्र ही हैं। प्रस्तुत लघुविद्यानुवाद में ये विद्याएँ जहाँ से भी अवतरित की गई हों उन पर अपभ्रंश का अधिक प्रभाव परिलक्षित होता है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात भी सिद्ध होती है कि क्वचित् पाठभेद के अतिरिक्त मूल मन्त्रों में दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। अतः दोनों की मूल परम्परा एक ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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