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________________ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना ७९ तत्पश्चात् नृत्य-क्रीड़ा में प्रवृत्त उन देवकुमारों और देवकुमारिकाओं ने भगवान महावीर एवं गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों आदि के समक्ष स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण इन आठ मंगलद्रव्यों का आकार रूप दिव्य नाट्याभिनय दिखलाया। तत्पश्चात् दूसरी नाट्यविधि प्रस्तुत करने के लिए वे एकत्रित हुए एवं उन्होंने भगवान महावीर एवं गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्य, माणवक, वर्धमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता और पद्मलता के आकार की नाट्यविधि दिखलायी। उसके पश्चात् उन सभी ने भगवान महावीर के समक्ष ईहामृग, वृषभ, तुरग-अश्व, नर-मानव, मगर, विहग-पक्षी, व्याल-सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, कुंजर, वनलता और पद्मलता की आकृति रचना रूप दिव्य नाट्यविधि को प्रस्तुत किया। तदनन्तर उन्होंने एकतोवक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विघातश्चक्रवाल ऐसी चक्रार्ध-चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि प्रस्तुत की। इसी क्रम से उन्होंने चन्द्रावलि, सूर्यावलि, वलयावलि, हंसावलि, एकावलि, तारावलि, मुक्तावलि, कनकावलि, रत्नावलि की विशिष्ट रचनाओं से युक्त दिव्य नाट्यविधि का अभिनय किया। तत्पश्चात् उन्होंने चन्द्रमा और सूर्य के उदय होने की रचनावली उद्गगमनोद्गमन नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। उसके पश्चात् चन्द्र-सूर्य आगमन नाट्यविधि अभिनीत की। तदनन्तर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण होने पर गगन मण्डल में होने वाले वातावरण की दर्शक आवरणावरण नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। इसके बाद अस्तमयनप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का अभिनय किया। उसके पश्चात् चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमण्डल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल, महोरगमण्डल और गन्धर्वमण्डल की रचना से युक्त दर्शक मण्डलप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि प्रस्तुत की। इसके पश्चात् वृषभमण्डल, सिंहमण्डल की ललित गति अश्व गति और गज की विलम्बित गति, अश्व और हस्ती की विलसित गति, मत्त अश्व और मत्त गज की विलसित गति आदि गति की दर्शक रचना से युक्त द्रुतविलम्बित प्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। इसके बाद सागर, नगर, प्रविभक्ति नामक अपूर्व नाट्यविधि अभिनीत की। तत्पश्चात् नन्दा, चम्पा, प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। इसके पश्चात् मत्स्याण्ड, माकराण्ड, जार, मार, प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का अभिनय किया। तदनन्तर उन्होंने 'क' अक्षर की आकृति की रचना करके ककार प्रविभक्ति इसी प्रकार ककार से लेकर पकार पर्यन्त पाँच वर्गों के २५ अक्षरों के आकार का अभिनय का प्रदर्शन किया। तत्पश्चात् पल्लव प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि प्रस्तुत की और इसके बाद उन्होंने नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, आम्रलता, वनलता, वासन्तीलता, अतिमुक्तकलता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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