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वृष्णिदशा : एक परिचय : ८५
कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। फिर भी निषधकुमार के तीन भवों के उल्लेख से पुनर्जन्म और आत्मा की नित्यता की पुष्टि हो जाती है।
इसमें शेष ग्यारह अध्यायों की, प्रथम अध्याय से जो समरूपता बताई गई है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि निषधकुमार के समान शेष भाइयों ने भी संयमव्रत ग्रहण किया होगा और संथारापूर्वक देहत्याग करके स्वर्ग में उत्पन्न हुए होंगे और फिर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्ति को प्राप्त करेंगे।
प्रस्तुत कृति में अष्टमंगल का उल्लेख है और अष्टमंगल का अंकन हमें मथुरा के शिल्प में ईसा की प्रथम - द्वितीय शताब्दी से मिलने लगता है अत: वृष्णिदशा का रचनाकाल भी इसी के आस-पास होना चाहिए। मेरी दृष्टि में निर्ग्रन्थ परम्परा में कृष्ण और उनके वृष्णिवंश का उल्लेख भी इन्हीं शताब्दियों में प्रारम्भ हुआ होगा।
इसके अतिरिक्त वृष्णिदशा में द्वारिका नगरी, रैवतक पर्वत, नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन, अरिष्टनेमि के आगमन और कृष्णवासुदेव, बलदेव आदि के दर्शनार्थ जाने आदि के जो उल्लेख इस उपांगसूत्र में हैं, वे अंतकृद्दशा आदि ग्रन्थों में भी मिलते हैं, उसमें न तो किसी प्रकार की नवीनता है और न कोई वैशिष्ट्य ही है।
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