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रिभित, अंचितरिभित, आरभद, भसोल और आरभटभसोल नामक नाट्यविधियों का प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनों के पश्चात् वे सभी एक स्थान पर एकत्रित हुए तथा भगवान महावीर के पूर्व भवों से सम्बन्धित चरित्र से निबद्ध एवं वर्तमान जीवन सम्बन्धी च्यवनचरित्रनिबद्ध, गर्भसंहरणचरित्रनिबद्ध, जन्म चरित्रनिबद्ध, जन्माभिषेक, बालक्रीड़ानिबद्ध, यौवन-चरित्रनिबद्ध, अभिनिष्क्रमण - चरित्रनिबद्ध, तपश्चरण-चरित्रनिबद्ध, ज्ञानोत्पाद - चरित्रनिबद्ध, तीर्थ - प्रवर्तन चरित्र से सम्बन्धित, परिनिर्वाण चरित्रनिबद्ध तथा चरम - चरित्रनिबद्ध नामक अन्तिम दिव्य नाट्य अभिनय का प्रदर्शन किया । "
धार्मिक नाटकों के मंचन और जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य करने की परम्परा आज भी जैनधर्म में जीवित पायी जाती है । विगत शताब्दी में श्रीपाल मैनासुन्दरी नाटक के मंचन के लिए एक पूरा समुदाय ही था, जो स्थान-स्थान पर जाकर इसे एवं अन्य भक्ति प्रधान नाटकों को मंचित करता था और उसी के सहारे अपनी जीवनवृत्ति चलाता था। आज भी जैनों के धार्मिक समारोहों के अवसर पर जैन परम्परा के कथानकों से सम्बद्ध नाटकों का मंचन किया जाता है। अतः संगीत, नृत्य एवं नाटक जीवित परम्परा के रूप में आज भी जैन विधि-विधानों के साथ जुड़े हुए हैं। यह स्पष्ट है कि जैन साधना में नृत्य, संगीत आदि जिन कलापरक पक्षों का समाहार हुआ है, उस पर भक्तिमार्गी परम्परा का प्रभाव है। निवृत्तिमार्गी परम्परा होने के कारण प्रारम्भ में तो इनका वर्जन ही किया था, किन्तु कालान्तर में भक्तिमार्ग ने जैनधर्म को प्रभावित किया और ये तत्त्व उसमें प्रविष्ट हो गये । यद्यपि इस माध्यम से जैनाचार्यों ने मनुष्य के वासनात्मक पक्ष का उदात्तीकरण किया है, ताकि व्यक्ति को एक सम्यक् दिशा दी जा सके।
राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव द्वारा की गई जिनपूजा का वर्णन प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है- 'सूर्याभदेव ने व्यवसाय सभा में रखे हुए पुस्तकरत्न को अपने हाथ में लिया, हाथ में लेकर उसे खोला, खोलकर उसे पढ़ा और पढ़कर धार्मिक क्रिया करने का निश्चय किया, निश्चय करके पुस्तकरत्न को वापस रखा, रखकर सिंहासन से उठा और नन्दा नामक पुष्करिणी पर आया । नन्दा पुष्करिणी में प्रविष्ट होकर उन्होंने अपने हाथ-पैरों का प्रक्षालन किया तथा आचमन कर पूर्णरूप से स्वच्छ और शुचिभूत होकर स्वच्छ श्वेत जल से भरी हुई भृंगार (झारी) तथा उस पुष्करिणी में उत्पन्न शतपत्र एवं सहस्रपत्र कमलों को ग्रहण किया फिर वहाँ से चलकर जहाँ सिद्धायतन (जिनमंदिर) था, वहाँ आये । उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछन्दक और जिनप्रतिमा थी वहाँ आकर जिनप्रतिमाओं को
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