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ध्यानशतक : एक परिचय : ४७
में गाथा क्रमांक २८ से ६८ तक ४१ गाथाओं में धर्मध्यान का विवेचन हुआ है। इसके आगे ३७ गाथाओं में शुक्लध्यान का विवेचन है।
प्रस्तुत कृति में धर्मध्यान के समान शुक्लध्यान के भी बारह द्वार बताये गये हैं, किन्तु इनमें भावना, देश(स्थान), काल (ध्यान के योग्य समय) तथा आसन (ध्यान के आसन)- ये चार धर्मध्यान और शुक्लध्यान में समान होने से शुक्लध्यान की चर्चा के प्रसंग में इनका पुन: उल्लेख नहीं किया गया है। अतः सर्वप्रथम शुक्लध्यान के क्षांति (क्षमा), मार्दव (विनम्रता), आर्जव (सरलता) और मुक्ति (निर्लोभता) ये चार आलम्बन बताये गये हैं। वस्तुतः शुक्लध्यान का मुख्य लक्ष्य कषायों पर विजय प्राप्त करना है, अतः क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों के प्रतिरोधी चार धर्मों को शुक्लध्यान का आलम्बन कहा गया है। ध्यान-क्रम की चर्चा करते हुए इसमें यह बताया गया है कि विषय संकोच अर्थात् संसार के विषयों के प्रति अनात्म भाव जाग्रत करते हुए, अर्थात् ये मेरे नहीं है, मैं इनसे भिन्न हूँ, आत्मा के शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा भाव पर चित्त को केन्द्रित करना- यह विषय संकोच का क्रम है। छद्मस्थ जीव इसी क्रम में शुक्लध्यान करता है, किन्तु वीतराग परमात्मा का शुक्लध्यान योगनिरोध रूप शैलेषी अवस्था रूप होता है- यहाँ 'मन' 'अमन' हो जाता है। इसके तीन दृष्टान्त दिए गये हैं- जैसे मान्त्रिक शरीर में व्याप्त जहर को डंक स्थान पर लाकर निर्मल कर देता है, वैसे ही शुक्लध्यानी अपने विषयों में व्याप्त मन को, क्रमशः उसके विषय रूप विष का संकोच करते हुए, आत्मतत्त्व पर केन्द्रित कर अमन या निर्विषय बना देता है। जिस प्रकार ईंधन को जलाते हुए ईंधन के अभाव में अग्नि स्वयं नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मन अपने विषयों का त्याग करते हुए अन्त में अमन बन जाता है। जैसे कच्चे घड़े को अग्नि में पकाने पर इनकी आर्द्रता समाप्त हो जाती है, वैसे ही ध्यानाग्नि में तपाने से मन की आर्द्रता अर्थात् विषयानुगामिता समाप्त हो जाती है। फिर मनयोग, वचनयोग और काययोग का निरोध किस प्रकार और किस क्रम से होकर शैलेषी अवस्था को प्राप्त करती है, इसकी चर्चा है। इसके पश्चात् शुक्लध्यान के चार चरणों- १. पृथक्त्व-वितर्कविचार अर्थात् आत्म-अनात्म का भेद-विज्ञान २. एकत्व-वितर्क-अविचार अर्थात आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिरता ३. सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति अर्थात् योग निरोध में प्रवर्तनशील आत्म स्थिति और ४. व्यच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती अर्थात त्रियोग निरोध की अंतिम स्थिति या निर्विकल्प आत्म-समाधि की अवस्था का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं अर्थात् आस्रव हेतु,
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