SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० किन्तु यहाँ एक समस्या यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कुछ प्रकाशित संस्करणों में एवं हरिभद्र की आवश्यकवृत्ति में मात्र १०५ गाथाएँ ही मिलती हैं। उसमें १०६वीं गाथा नहीं है। इस आधार पर पण्डित बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने ध्यानशतक की अपनी भूमिका में यह शंका प्रस्तुत की है कि ध्यानशतक के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नहीं हैं। यदि हम पंडित जी की इस बात को स्वीकार करके यह मान भी लें कि १०६वीं गाथा मूलग्रन्थकार की न होकर के बाद में किसी के द्वारा जोड़ी गई है तो भी इस आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नहीं हैं, क्योंकि स्वयं पंडित बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने अपनी भूमिका में ही इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपनी कृतियों यथाविशेषावश्यकभाष्य, जीतकल्पभाष्य आदि में भी लेखक के रूप में अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है। किन्तु कर्ता के नाम के अनुल्लेख से 'ध्यानाध्ययन' की अन्यकर्तकता सिद्ध नहीं होती है। हम उनसे सहमत होकर यह मान सकते हैं कि यह अंतिम गाथा बाद में किसी के द्वारा जोड़ी गई है। किन्तु उनकी इस बात से प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता जिनभद्रगणि नहीं है यह फलित नहीं होता है। क्योंकि इस सम्बन्ध में अन्य अनेक साधक प्रमाण भी उपस्थित हैं। यह भी सत्य है कि इस १०६वीं गाथा में यह कहा गया है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया। यह कथन स्वयं लेखक के द्वारा तो नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यदि लेखक स्वयं इस गाथा के रचयिता होते तो वे यह लिखते 'मुझ जिनभद्रगणि द्वारा रचा गया। अतः इस गाथा का अन्यकर्तृक और प्रक्षिप्त होना तो सिद्ध है, किन्तु पंडित बालचन्द्रजी का यह कहना कि यह गाथा असम्बद्ध ही है उचित नहीं है, क्योंकि प्रस्तुत गाथा में ग्रन्थ की गाथा संख्या का उल्लेख करते हुए ही ग्रन्थकार का उल्लेख हुआ है। अतः यह गाथा असम्बद्ध नहीं कही जा सकती। अब प्रश्न यह उठता है कि यह गाथा प्रस्तुत कृति में कब जोड़ी गई? वस्तुतः यह गाथा प्रस्तुत कृति में हरिभद्र की टीका के पश्चात् ही जोड़ी गई होगी और यही कारण हो सकता है कि हरिभद्र ने इस गाथा पर टीका न लिखी हो। दूसरे यदि हरिभद्र स्वयं इस गाथा को जोड़ते तो मूल गाथाओं के बाद इस गाथा को अवश्य देते, किन्तु उनकी टीका में इस गाथा की अनुपलब्धि यही सिद्ध करती है कि यह गाथा अवश्य की हरिभद्रीय टीका के बाद ही जुड़ी होगी। किन्तु हरिभद्रीय टीका के पश्चात् मलधारी हेमचन्द्र द्वारा जो टिप्पण लिखे गये उनमें भी इसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं किया गया। इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy