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________________ जैन धर्म में ध्यान - विधि की विकास-यात्रा : ३५ होता है कि महावीर की और बौद्धों की ध्यान-साधना-पद्धति उनके पूर्ववर्ती आचार्य रामपुत्त की साधना-पद्धति से प्रभावित रही है। क्योंकि हम देखते हैं कि त्रिपिटक साहित्य में बुद्ध ने जिन आचार्यों से ध्यान सीखा था, उनमें एक प्रमुख नाम आचार्य रामपुत्त का भी है । त्रिपिटक साहित्य में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख भी है। जैन परम्परा में भी सूत्रकृतांगसूत्र, प्राचीन अंतकृत्दशासूत्र की विषय-वस्तु और ऋषिभाषित में रामपुत्त के उल्लेख उपलब्ध हैं। इस प्रकार जैन और बौद्ध ध्यान-पद्धतियों का मूल वस्तुतः रामपुत्त की ध्यान-साधना-पद्धति रही हुई है, ऐसा माना जा सकता है। यही कारण है कि दोनों में शब्दगत और पद्धतिगत अनेक समरूपताएँ प्राप्त होती हैं। रामपुत्त को महर्षि पंतजलि का समकालीन ही माना जा सकता है। यही कारण है कि अनेक प्रसंगों में जैन ध्यान-पद्धति और पातंजल योगसूत्र प्रणीत ध्यान-पद्धति में भी कुछ अंशों में साम्य नजर आता है । पुनः यह भी सुस्पष्ट है कि कालांतर में जैन ध्यान-पद्धति पर हिन्दू परम्परा में विकसित विभिन्न ध्यान-पद्धतियों का प्रभाव पड़ा है। आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने योगसूत्र प्रणीत ध्यान -पद्धति और योग-पद्धति के आधार पर जैन योग की ध्यान-पद्धति का विकास किया। उसके पश्चात् पुनः दसवीं शताब्दी में आचार्य शुभचन्द्र ने तांत्रिक ध्यान-साधना विधि का अनुकरण करके पार्थिवी, वायवी आदि धारणाओं की चर्चा की। बारहवीं शती में हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में शुभचन्द्र का अनुसरण किया। इस प्रकार ऐतिहासिक विकास-क्रम में महावीर से लेकर आचार्य हेमचन्द्र तक जैन ध्यान विधि का जो विकास हुआ उस पर अन्य ध्यान परम्पराओं का प्रभाव भी देखा जा सकता है। क्योंकि साधना कि कोई भी परम्परा हो वह न तो शून्य से ही टपकती है और न वह अपनी सहवर्ती परम्पराओं से पूर्णतः अप्रभावित रहती है। जैन ध्यान-साधना - विधि का काल - क्रम में जो विकास हुआ है, वह अपने सहवर्ती अन्य परम्पराओं से अप्रभावित तो नहीं रही है किन्तु फिर भी उसकी अपनी मौलिकता है। जैन धर्म में महावीर से लेकर वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ तक ध्यान की जो धारा प्रवाहित होती रही है उसमें अनेक जैन आचार्यों का अवदान रहा है। जैन आचार्यों कि यह विशेषता रही है कि वे देश-कालगत परिस्थितियों के अनुसार अपनी सहवर्ती परम्पराओं का सहयोग लेकर अपनी ध्यान-साधना की विधि को विकसित, परिमार्जित और परिष्कृत करते रहें है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने प्राचीन आगमिक ध्यान-साधना - विधि के साथ विपश्यना, राजयोग, हठयोग और आधुनिक मनोविज्ञान को समन्वित कर प्रेक्षाध्यान - विधि का विकास किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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