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जैन धर्म में ध्यान-विधि की विकास-यात्रा : ३३
करना ही रहा है। चाहे 'योगः चित्तवृत्ति निरोधः' की परभिाषा को लें या 'चित्त समाधि' या मन को अमन बनाने की बात को लें, ध्यान-साधना के मूल लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं आता। यदि कहीं अन्तर है तो वह उन पद्धतियों में है, जिनके आधार पर चित्तवृत्तियों का निरोध या मन को अमन बनाने की साधना की जाती है।
यह सत्य है कि आज हम सब तनाव में जी रहे हैं, किन्तु सभी का लक्ष्य तनाव से मुक्ति पाना है। इस प्रकार यदि हम देखें तो आज विश्व की सभी साधनापद्धतियों का मुख्य लक्ष्य तनाव का निराकरण है। इस तरह ध्यान और साधना की चाहे अनेक पद्धतियाँ प्रचलन में हों किन्तु उन सबका लक्ष्य तो एक ही है। चाहे लक्ष्य चित्तवृत्तियों का निरोध हो या निर्विकल्पसमाधि हो अथवा जैन दर्शन की भाषा में योग से आयोग की यात्रा हो, मूल बात केवल इतनी ही है कि मन की भाग-दौड़ कम हो एवं आकांक्षाओं और इच्छाओं का स्तर निम्नतम बिन्दु तक आये। प्राचीनकाल से लेकर आजतक ध्यान की समग्र साधनाओं का लक्ष्य मन को अमन बनाना ही रहा है। जैन परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने मन के चार स्तर- (१) विक्षिप्त मन (२) यातायत मन (३) श्लिष्ट मन और (४) सुलीन मन बताये हैं और ध्यान-साधना का लक्ष्य सुलीन मन ही माना गया है। सुलीन मन वह है जहाँ मनोवृत्तियों का लय हो जाता है, इच्छा, आकांक्षा
और वासना का विलय हो जाता है। इसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में मन के स्थान पर चित्त के चार स्थान बताये गये हैं- (१) कामावचर (२) रूपावचर (३) अरूपावचर और (४) लोकोत्तर। इनमें लोकोत्तर चित्त राग, द्वेष और मोह से रहित विकल्पशून्य अवस्था है। लोकोत्तरचित्त का विकास तभी होता है, जब वासनाएँ विलीन हो जाती हैं। इसी क्रम में योगदर्शन में चित्त की पाँच भूमियाँ या स्तर बताये गये हैं- (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। इन पाँचों भूमियों में अंतिम भूमि तो निरुद्ध-चित्तभूमि ही है। निरुद्धचित्तभूमि वह है जहाँ सभी वृत्तियाँ लय हो जाती हैं। चित्त विकल्पशून्य बन जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ध्यानमार्ग की इन विभिन्न साधना-पद्धतियों के मूल लक्ष्य में कहीं कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार योगदर्शन में एकाग्र-चित्त और निरुद्ध-चित्त में अन्तर किया गया है, उसी प्रकार जैन परम्परा में ध्यान और व्युत्सर्ग में अन्तर किया गया है। जैन परम्परा के अनुसार ध्यान चित्तवृत्ति की एकाग्रता का नाम है और व्युत्सर्ग चित्त वृत्तियों के विलय की अवस्था है जिसे हम निर्विकल्प समाधि के रूप में व्याख्यायित कर सकते हैं।
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