SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ : अतः प्रस्तुत आलेख में हमारी चर्चा का मुख्य विषय - वनस्पति को छोड़कर शेष पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु इन चार की जीवन्तता के सन्दर्भ में ही है। पृथ्वी, अप् (जल), वायु और अग्नि ये चार जैन आगम आचारांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र और दशवैकालिकसूत्र में सजीव ही कहे गये हैं और इनका वर्गीकरण भी जीवों के वर्गीकरण के सन्दर्भ में ही हुआ है। प्रस्तुत आलेख में हम आगे विज्ञान की दृष्टि से यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि पृथ्वी आदि यदि सजीव हैं तो वे कैसे और किस रूप में सजीव हैं। ज्ञातव्य है कि आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय के साथसाथ दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि में जैन आचार्यों ने षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी आदि को सजीव बतलाने की दृष्टि से उसके साथ कायिक शब्द का प्रयोग किया है, यथा- पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, वायुकायिक जीव, अग्निकायिक जीव आदि। अत: सबसे प्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि इनमें जीवत्व की सिद्धि इनके कायिकत्व अर्थात् जीवित शरीर के आधार पर ही की जा सकती है। यद्यपि यहां प्रश्न खड़ा किया जा सकता है कि 'काय' शब्द तो जैन आचार्यों के द्वारा जीवों के अतिरिक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय आदि अजीव द्रव्यों के साथ भी किया गया है, अतः पृथ्वीकाय आदि में 'काय' शब्द जीवत्व का वाचक नहीं हो सकता है। जैसी कि परम्परागत मान्यता है, 'काय' शब्द विस्तार, प्रसार आदि के अर्थ में प्रसिद्ध है जिसका आकाश में भी कोई विस्तार या प्रसार है वह भी जैन दर्शन में 'काय' शब्द से वाच्य है। पृथ्वी, अग्नि आदि में भी 'काय' शब्द विस्तार का सूचक है, जीवत्व का नहीं। जैन परम्परा में जिसका भी कोई विस्तार देखा जाता है- उसको काय कहते हैं। पृथ्वी आदि तत्त्व भी आकाश के समान विस्तार युक्त होने से पृथ्वीकाय आदि के रूप में प्रयुक्त हुये हैं, किन्तु इससे उनके सजीवत्व की पुष्टि नहीं होती है।' _ 'काय' शब्द का एक अर्थ शरीर भी है, अतः इस सन्दर्भ में हमें थोड़ी गहराई में जाना होगा। अजीव द्रव्यों के सन्दर्भ में जहाँ 'काय' शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ निश्चय ही उसका अर्थ विस्तरित द्रव्य है, किन्तु जैन दर्शन में काय के तीन प्रकार माने गये हैं-१ सचित्त २ अचित्त और मिश्र। अत: 'काय' शब्द सजीव और अजीव दोनों प्रकार के लिये भी प्रयुक्त होता है जैसे जीवास्तिकाय सजीव के लिए और पुद्लास्तिकाय अजीव के लिए है। यह मानने में भी जैनों को कोई आपत्ति नहीं है कि काय निर्जीव भी होता है, किन्तु वे यह भी मानते हैं कि काय सचित्त अर्थात् सजीव भी हो सकता है, जैसे जीवित प्राणी का शरीर भी सजीव होता है। इसलिए जैन दार्शनिकों ने षट्जीवनिकायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy