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यदि हम ब्रह्मसूत्र पर विचार करें तो उसके द्वितीय पाद के द्वितीय अध्याय सूत्र क्रमांक १८ से लेकर ३२ तक बौद्ध दर्शन के पंचस्कन्धवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद की समीक्षा की गई है। इससे एक महत्त्वपूर्ण तथ्य उभर कर यह आता है कि यदि ब्रह्मसूत्र में बौद्धों के शून्यवाद की समालोचना है, तो फिर ब्रह्मसूत्र ईसा की दूसरी शती से पूर्व का नहीं हो सकता है। क्योंकि बौद्ध दर्शन में शून्यवाद का विकास दूसरी शती से ही देखा जाता है।
इसी प्रकार सांख्यसूत्र (५/५२) में बौद्धों के असत् - ख्यातिवाद अर्थात् शून्यवाद का खण्डन किया गया है। इससे सांख्यसूत्र का रचनाकाल भी शून्यवाद के पश्चात् ही मानना होगा। इन संकेतों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रयुग में भारतीय दार्शनिक बौद्धों के क्षणिकवाद, संततिवाद, पंचस्कन्धवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद से परिचित हो चुके थे।
सूत्र ग्रन्थों की रचना के पश्चात् भारतीय दर्शन - प्रस्थानों में तत्त्वमीमांसा एवं प्रमाणशास्त्र सम्बन्धी समीक्षात्मक ग्रन्थों का रचनाकाल प्रारम्भ होता है। ईसा की चौथी - पाँचवीं शती से लेकर प्रायः बारहवीं - तेरहवीं शती तक तत्त्वमीमांसा एवं प्रमाणमीमांसा सम्बन्धी एवं दूसरे दार्शनिक प्रस्थानों के समीक्षा रूप गम्भीर ग्रन्थों का प्रणयन तार्किक शैली में हुआ । इन ग्रन्थों में अन्य दर्शनों की समीक्षा में उन्हें समझे बिना न केवल बाल की खाल उतारी गई, अपितु उनकी स्थापनाओं को इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया कि उनको खण्डित किया जा सके। इस काल में दो प्रकार के ग्रन्थों की रचना देखी जाती है- या तो वे किसी सूत्र ग्रन्थों की टीका के रूप में लिखे गये या फिर स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में लिखे गयेइन दोनों प्रकार के ग्रन्थों में प्रत्येक दार्शनिक प्रस्थान ने स्वपक्ष के मण्डन और विरोधीपक्ष के खण्डन का प्रयास किया। इस युग में भारतीय दार्शनिकों ने जहाँ एक ओर अपनी कृतियों में बौद्ध अवधारणाओं की समीक्षा की, वहीं बौद्ध चिन्तकों ने अन्य भारतीय दर्शनों की समीक्षा की। बौद्ध धर्म-दर्शन में ऐसे दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की परम्परा ईसा की प्रथम द्वितीय शती से लेकर लगभग ग्यारहवीं शताब्दी तक निरन्तर बनी रही है। इस काल में प्रारम्भ में मुख्यतः विज्ञानवाद और शून्यवाद के ग्रन्थों की रचना हुई। इनमें दार्शनिक चिन्तन की जो गम्भीरता देखी जाती है, वह निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। पश्चिम में लगभग पन्द्रहवीं शती से आधुनिक काल तक जिन दार्शनिक प्रस्थानों का विकास हुआ है उन सभी के आधारभूत तत्त्व मात्र बौद्ध परम्परा की विभिन्न दार्शनिक निकायों में मिल जाते हैं।
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