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________________ 'नवदिगम्बर सम्प्रदाय' की कल्पना कितनी समीचीन? : १११ के आधार पर सिद्ध किया है कि मूलसंघ, पुन्नाटसंघ दोनों ही यापनीय संघ हैं। क्योंकि पाँचवीं शताब्दी के हलसी (उत्तर-पश्चिम कर्नाटक) के अभिलेखों में दिगम्बर संघ के लिए 'निर्ग्रन्थ संघ' का प्रयोग हुआ है। अत: पुन्नाट जिनसेन नवदिगम्बर नहीं यापनीय ही हैं। पुनः पुनाटसंघ यापनीय ‘पुन्नागवृक्षमूलगण' का ही परवर्ती रूप है। यापनीयों के जिन गणों का उल्लेख अभिलेख में है, वहाँ गण के नाम के आगे 'मूलगण' शब्द का प्रयोग हुआ है। मूलसंध और मूलगण समानार्थक हैं, अतः मूलसंघ वस्तुतः यापनीय संघ का ही पूर्व नाम है, कालान्तर में जब यापनीय गणों का विलय निर्ग्रन्थदिगम्बर परम्परा में हुआ, तब से दिगम्बर परम्परा और 'मूलसंघ' एक-दूसरे के पर्याय बन गये हैं। शिवार्य की भगवती आराधना भी यापनीय ग्रन्थ, है, क्योंकि उसके टीकाकार अपराजितसूरि स्पष्टत: यापनीय हैं। भगवती आराधना के आधार पर लिखी गई वड्डआराधने तथा एक अन्य आराधना टीका के दिगम्बर होने से भी यह नहीं सिद्ध होता है कि मूलग्रन्थ दिगम्बर है। क्योंकि अनेक बौद्ध एवं दिगम्बर ग्रन्थों पर हरिभद्र, यशोविजय आदि श्वेताम्बर आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं, इससे वे बौद्ध या दिगम्बर नहीं कहे जा सकते। सन्मतितर्क और कल्याणमंदिरस्तोत्र भी नवदिगम्बर नहीं कहे जा सकते। सिद्धसेन दिवाकर को दिगम्बर परम्परा में जो स्थान मिला है, वह उनकी कृति की मूल्यवत्ता के आधार पर है। मैंने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में इस बात को स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है कि सिद्धसेन का सन्मतितर्क दिगम्बर नहीं है। वे श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा के पूर्वज आचार्य हैं। आश्चर्य तो यह है कि इतिहास के गम्भीर विद्वान् डॉ० नागराजैय्या ने सन्मतितर्क के टीकाकार अभयदेव को दिगम्बर लिख दिया। जबकि सन्मतितर्क की अभयदेव की टीका में अभयदेव ने अपने को प्रद्युम्नसूरि का शिष्य कहा है और प्रद्युम्नसूरि चन्द्रगच्छीय हैं। मात्र यही नहीं पार्श्वनाथचरित्र की अंतिम प्रशस्ति में उन्हें स्पष्टतः श्वेताम्बर ग्रामनीय लिखा है। डॉ० नागराजैय्या की यह मान्यता कि सिद्धसेन और जटासिंहनन्दी भी नवदिगम्बर थे,सम्यक् नहीं है। क्योंकि सिद्धसेन स्पष्ट सम्प्रदाय-भेद के पूर्व के आचार्य हैं और जटासिंहनन्दी स्पष्ट यापनीय हैं। पेन नामान्त जितने भी आचार्य हैं वे सब सेन संघ के हैं, यह मान्यता भी सत्य से परे है। श्वेताम्बर, दिगम्बर तथा यापनीय तीनों ही परम्पराओं में पेन नामान्त अनेक आचार्य हुए हैं। अतः 'षेन' नामान्त आचार्यों को नवदिगम्बर कहना भी उचित नहीं है। नवदिगम्बर नामक कोई सम्प्रदाय कभी अस्तित्व में नहीं रहा है। श्वेताम्बर और दिगम्बर से भिन्न और दोनों के मध्य समन्वय का सेतु बनाने वाला यदि कोई जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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