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________________ जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत : ९७ निर्देश तो हैं ही, उनके सम्बन्ध में अनेक ऐतिहासिक सत्य भी वर्णित हैं। मरुगुर्जर में हमें सैकड़ों चैत्य-परिपाटियाँ (१६वीं से १९वीं शती तक) उपलब्ध होती हैं। जिनमें आचार्यों ने अपने यात्रा विवरणों को संकलित किया है। इसी से मिलतीजुलती एक विधा तीर्थमालाएँ हैं। यह भी चैत्य-परिपाटी और यात्रा-विवरणों का ही एक रूप है। इसमें लेखक विभिन्न तीर्थों का विवरण देते हुए तीर्थ के अधिनायक की स्तुति करता है। यद्यपि परवर्ती काल की तीर्थमालाओं में मुख्य रूप से तीर्थनायक की प्रतिमा के सौन्दर्य वर्णन को प्रमुखता मिली है, किन्तु प्राचीन तीर्थमालाएँ मुख्य रूप से नगर, राजा और वहाँ के सांस्कृतिक परिवेश का भी विवरण देती हैं और इस दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करती हैं। अधिकांश तीर्थमालाएँ १५वीं से १८-१९वीं शताब्दी के मध्य की हैं और इनकी भाषा मुख्यतः मरुगुर्जर है, किन्तु विविधतीर्थकल्प आदि कुछ तीर्थमालाएँ प्राचीन भी हैं। इसी क्रम में जैनाचार्यों ने अनेक नगर वर्णन भी लिखे हैं, जैसे नगरकोट कांगडा वर्णन। नगर वर्णन सम्बन्धी इन रचनाओं में न केवल नगर का नाम है अपितु उनकी विशेषताएँ तथा उन नगरों से सम्बन्धित उस काल के अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी निहित हैं। चैत्य परिपाटियों और तीर्थमालाओं की एक विशेषता यह होती है कि वे उस नगर या तीर्थ के सम्बन्ध में पूरा विवरण देती हैं। (छ) विज्ञप्ति पत्र एक अन्य विधा जिसमें इतिहास सम्बन्धी सामग्री व नगर-वर्णन दोनों ही होते हैं वे विज्ञप्ति पत्र कहे जाते हैं। विज्ञप्ति पत्र वस्तुतः एक प्रकार का विनंति पत्र है, जिसमें किसी आचार्य विशेष से उनके नगर में चार्तुमास करने का अनुरोध किया जाता है। ये पत्र इतिहास के साथ ही साथ कला के भी अनुपम भंडार होते हैं। इनमें जहाँ एक ओर आचार्य की प्रशंसा और महत्त्व का वर्णन होता है, वहीं दूसरी ओर उस नगर की विशेषताओं के साथ-साथ नगर निवासियों के चरित्र का भी उल्लेख होता है। लगभग १५वीं शती से प्रारम्भ होकर १६-१७वीं शती तक के अनेक विज्ञप्ति पत्र आज भी उपलब्ध हैं। ये विज्ञप्ति पत्र जन्मपत्री के समान लम्बे आकार के होते हैं, जिसमें नगर के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के सुन्दर चित्र भी होते हैं, जिससे इनका कलात्मक महत्त्व भी बढ़ जाता है। __ इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि आगम, आगमिक व्याख्यायें, स्वतंत्र ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, धार्मिक कथानक, चरित ग्रन्थ, प्रबन्ध साहित्य, पट्टावलियाँ, स्थविरावलियाँ, चैत्य परिपाटियाँ, तीर्थमालाएँ, नगर वर्णन और विज्ञप्ति पत्र आदि सब मिलकर सामान्य रूप से भारतीय इतिहास विशेषत: जैन इतिहास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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